...सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना....
-अवतार सिंह संधू उर्फ़ पाश

Tuesday, November 25, 2008

सिगरेट पीती लड़कियाँ पिघलते एहसास की परछाई है

एक झूठ को सदी के सबसे आसान सच में बदलने की कोशिश करती हैं
सिगरेट पीती हुई लड़कियाँ
…उंगलियों में हल्के से फंसाकर
धुँएं की एक सहमी लकीर बनाना चाहती हैं
ताकि वे बेबस किस्म की अपनी खूबसूरती को भाप बना कर उड़ा सकें

गर्मियों में गुलमोहर के पेड़ का इंतजार किसे नहीं होता...
फूलों के बोझ से लद आई डालियों और झीनी पत्तियों की छत से
चुप सा नीला आसमां भी तो दिखता है
बेहद सुंदर! पर सिगरेट पीती लड़कियों के लिए यह डर की बात है
इसलिए वे कतई गुलमोहर नहीं होना चाहतीं

तमाम किस्म की बासी और साजिश भरी खुशबुओं से बाहर निकलने का प्रयास भर है यह

नवजात शिशु के चारपाई से गिर जाने पर
पैदा हुए ‘धक-सा’ होने का एहसास अब वे नहीं पालना चाहतीं
त्रासद है कि रोते हुए शिशुओं की आवाज उनके दिलों में आगे भी सुनाई पड़ेगी
पर वे उसका भान तक नहीं होने देंगी

हाँ यह सच है!
लड़कियाँ ओठों पर शैतानी खूबसूरती बिखेरना चाहती हैं अपने अंदर गहरे छुपे डर को
पिघलाने के लिए
सदियों पुरानी देह की महक को धुएँ में झुठलाने के लिए...

लड़कियाँ अब ‘माँ’ भी नहीं होना चाहतीं
जिनकी आँखों में भय के तैरते पुराने चौखटे उन्हें काट खाने को दौड़ते हैं
मल्टीप्लेक्स होती लड़कियाँ अब घर लौटने की जरूरत नहीं पालतीं।

सुमित सिंह

Friday, November 7, 2008

मैंग्रोव के जंगल के पहले रोज ठिठक जाता है शहर



एक अंधे सुरंग में चल कर कुछ देर बाद बाहर निकल आती है
मुम्बई की लोकल ट्रेन
तब दिखाई पड़ता है दोनों तरफ
मैंग्रोव का जंगल
लहराता रहता है
रात के सूनेपन में...

नवम्बर की शुरुआत है
जंगल के ऊपर आकाश में चिपका चांद
सफेद बर्फ के टूटे हुए टुकड़े की तरह खिलखिलाता है

कोई ठहर जाता है हर रात जंगल के किनारे उगी पहाड़ी पर
उस क्षण के इंतजार में
जब ऊपर मंदिर पर टिमटिमाती बत्तियां बुझ जाए
और कोई उसके भारी कंधे पर पीछे से आकर हल्के से अपनी हथेली धर जाए

पहाड़ी की सीढियों पर उस नाटे आदमी के पसीने की लकीर अब भी रेंग रही है
दिन की चमकती धूप में
लंबी चढ़ाई पार कर वह नीचे से ऊपर पानी से भरे गैलन पहुंचा जाता है
सांझ ढले उतरते उसके कदमों की आहटों में सिक्कों की खनखनाहट
यहीं कहीं छूट गई है
...अब भी सुनाई दे रही है

क्या है रात की खामोशी?
चुप रहना या दिन भर की आवाजों को सिसकती हवा के साथ घोल कर धीमे-धीमे पीना? ?
रात का जादू शायद रात को भी पता नहीं... सिवा उसके जो बहुत कुछ सुना जाना चाहता है
वर्ना रात बस रात होती है...एक अंधेरे की चादर जिसे हम बचपन से काले रंग में देखते चले आते हैं

यह रात एक पहचानी सी रोशनी है
मैंग्रोव पर पसरी हुई...
यहाँ आकर शहर हांफता-हांफता खत्म हो जाता है
एक सिरा खत्म और दूसरा शुरु होता है...

गहराती रात में मंदिर के घंटे की आवाज के बीच कोई अब भी बैठा है
इंतजार में...।

सुमित सिंह

Wednesday, October 22, 2008

राज, रेलवे और चयन प्रक्रिया में सुधार


महाराष्ट्र की ताजा घटनाओं से केंद्र सरकार को तुरंत कम से कम एक सीख तो जरूर लेनी चाहिए कि केंद्रीय प्रतिष्ठानों में भर्ती की क्षेत्रवाद या राज्यवार प्रक्रिया चलाना कहीं न कहीं भारत की संघीय भावना को कमजोर करने वाला कदम साबित हुआ है।

केंद्रीय एजेंसियों में खाली पदों में नियुक्ति के लिए परीक्षाओं का आयोजन देशव्यापी केंद्रों पर होना चाहिए। फिर विभिन्न केंद्रों पर चयनित उम्मीदवारों को जहाँ जिस क्षेत्र या राज्य में जरूरत हो वहाँ उन्हें नियुक्त किया जाए। यह व्यवस्था जहाँ एक तरफ परीक्षाओं के लिए लंबी यात्रा की असुविधा से छात्रों को निजात दिलाएगी वहीं भारत संघ के भीतर क्षेत्रवाद की संकुचित और राष्ट्रीय एकता विरोधी भावना को बेवजह भड़कने से रोका जा सकता है।

इस व्यवस्था से किसी एक राज्य या क्षेत्र को ऐसा नहीं लगेगा कि उनके यहां कि रिक्तियों को देश के दूसरे हिस्से के उम्मीदवार हड़प ले जा रहे हैं। यूपीएससी की परीक्षाओं एवं चयन व्यवस्था रेलवे तथा बैंकिंग जैसी देशव्यापी एजेंसियों के लिए मिसाल होनी चाहिए।

सूरज प्रकाश

Monday, October 20, 2008

मुम्बई की सड़क पर पसरा एक पिता

लोअर परेल का ब्रिज
मुम्बई की सड़क पर पसरा एक पिता है

पिता इसलिए कि
उसकी छांव तले जहाँ सूरज की रोशनी नहीं पहुंचती
अक्टूबर की पीली ठंडी चांदनी को मुट्ठी में भरकर छींट आता है...

दिन के उजालों में
धूल में सने इंसान के कुछ अपरिभाषित परिवारों को
तेज रफ्तार भागते शहर से सुरक्षा मुहैय्या करवाता है
अपनी देख-रेख में अपने नीचे खड़ा करवाता है
एक घर
जिसके चारों कोने कल्पनाओं से भरसक खाली रहते हैं
जिनमें चार दुधमुँहें बच्चों को कुछ माँए रोज अपने हाथों से छोड़ जाती हैं

दिन भर ललाट से बहते पसीने की धार से मुम्बई में कुछ नहीं पिघलता
दोपहर के सूखे-बेजान धूल भरे अंधेरे में
कई दिनों की टटाई रोटियों को टुकड़ों में तोड़ती औरतों के पास
अपने घर को देने के लिए
भूख मिटाने के सबसे जरूरी सपने के सिवा कुछ भी नहीं बचता

लोअर परेल में रहने वाला यह पिता
उन्हें बिना कुछ कहे जिंदा रहने के लिए बहुत कुछ दे जाता है|

सुमित सिंह

Wednesday, October 15, 2008

आख़िरी बार रोता हुआ आदमी

पागल होने से पहले
आख़िरी बार रोते हुए आदमी को देखकर
किसी की रूह नहीं कांपती
कोई नहीं सोचता कि यह आदमी अब कभी अपने घर नहीं लौट पाएगा
कभी इसके सपनों में चिड़ियों से भरा आसमान नहीं टंकेगा
कभी वह अपनी पहचान नहीं खोल पाएगा
शहर के कुत्ते
देर तक उसे शक की निगाह से देखकर भौंकते रहेंगे...

कोई नहीं डरता उसे देखकर
कोई नहीं डरता यह सोचकर
कि पागल होते आदमी की ख़ामोशी जब शोर बनकर निगलेगी समूचे शहर को
तो हर कोई एक-दूसरे से ख़फ़ा दिखेगा...।

सुमित सिंह

Friday, October 10, 2008

शहर की एक लड़की जो किसी से प्रेम नहीं करती

सहयाद्री की पहाड़ियों की तरह
अंदर से सख्त
मगर बाहर हरेपन की एक नर्म और पतली परत लिए
है शहर की एक लड़की
वह उन लम्हों में प्रेम करने से अक्सर खुद को बचाती है
जब उसके चेहरे पर एक मासूम-सी मुस्कराहट मचल उठती है

अव्वल तो यह लड़की सूई में धागे नहीं पिरोती
और पिरोती भी है तो तब
जब अपने दिल को थोड़ा और कड़े करने की जरूरत समझती है
अपनी मासूमियत में फ़रेब छुपाने की कोशिश करती
तब वह इस काइनात की सबसे खतरनाक शै में एक होती है

वह थोड़ा कहती है....धीमे बोलती है
आचरण की सख्ती पसंद है उसे
पर मुहब्बत के नाम पर नाक सिकोड़ती है

अपनी माँ का पल्लू कब का छोड़ चुकी
कितनी बेरहम हो सकती है अंदर से
इसका अंदाज़ा नहीं होने देती
करियर..एस्पिरेशंस...एम्बिशंस...रिलिजन जैसे कई खूबसूरत औजारों से
कभी गलती से उग आई प्रेम की धार को काट डालती है

दिन भर के सूखे कपड़े उठाने आते वक्त
बाल्कनी में वह कभी सपने नहीं देखती...
उसकी आंखों में चमक होती है
पर उसे कभी किसी का इंतजार नहीं होता
सिर्फ अपने शहर की तरह जीना चाहती है
ज़िंदगी भर असंतृप्त...

धीरे-धीरे चमक खो रही है यह जवान लड़की
हर बार जो प्रेम करने से बचा ले जाती है खुद को सुरक्षित
...सचमुच रूह कंपा जाती है

यकीन मानिए मुल्क की आबादी में
लड़कियों की आबादी के अनुपात का बिगड़ना
उतना खौफ़नाक नहीं
जितना कि शहर की इस लड़की का वीरान होना पसंद करना है

डरावनी बात यह भी है
कि कविता की आने वाली पंक्तियों में यह लड़की दिखेगी तो सही
पर उसके प्रेम की कहीं कोई चर्चा नहीं होगी।

सुमित सिंह

Tuesday, September 30, 2008

वे मौत में ग़र्क हो जाएंगे

बचपन से कहीं मेरे मन में अटका था
कि ‘लोगों को जीने के बहाने चाहिए
नहीं तो वे मौत में ग़र्क हो जाएंगे’...
लगता है इस सच पर अब धूल की एक पुरानी परत बिछ गई है

सुबह की चाय के साथ अखबार के पहले पन्ने से
निकलकर एक दारुण चीख
हर रोज मेरे कमरे में फैल जाती है

-दिल्ली में भयानक विस्फोट!
15 लोग मारे गए।
आतंकवादियों का हाथ...

या कि नाजायज संबधों को लेकर हत्या
पत्नी ने बेटी और पिता को मौत की नींद सुलाया!

या फिर कर्ज़ के बोझ से पांच ने फिर गले में फंदे लगाए

या यह कि ट्रेन में आग लगी...लगाई गई..
सामने से आती हुई ट्रेन प्लैटफॉर्म पर खड़ी ट्रेन से जा टकराई.. मानवीय भूल!

40 फुट गहरे खड्डे में गिरी स्कूल बस
सारे बच्चे मृत! लाश 8 घंटे पानी में तैरती रही

या मंत्री को एक रात जिस्म देने से मना किया
बदले में मिली रूह कंपा देने वाली मौत

या प्रेमिका की बेवफाई पर नींद की गोलियाँ गटकी
लाश चौराहे पर खड़ी कार में पाई गई

साढ़े सत्तानवे फीसदी नम्बर से सूबे भर में प्रथम
पर असंतुष्ट...रात सोते वक्त एक फिल्म देखी
और अपनी कलाई की नस काट ली...
....सच इस रात की सुबह नहीं

या कहीं कुछ न हो तो
मंदिर में भगदड़ मचने से 170 लोगों के मारे जाने की सूचना ही सही

न जाने क्या-क्या.. फेहरिस्त लंबा है

किसी बच्चे के रोने से अब मुहल्ला नहीं जागता
गलियों में समवेत स्वर में रोते बूढ़े कुत्तों को अब कोई नहीं टोकता
जमीन पर झड़े हरसिंगार के फूलों पर ओस की मासूम बूंदों के बीच
पैदा हुए बचपन के वे ख्याल
अब दफ्न हो रहे हैं कहीं

पीपल के पेड़ के नीचे से हर रास्ता अब उस तरफ जाता है
जहाँ एक कौंध उठती है
कि ‘इंसानों को मरने के बहाने चाहिए’!

सुमित सिंह

Tuesday, August 5, 2008

माफ़ करें, हमें आपकी परवाह नहीं!!

मुम्बई की चर्चा चले तो जेहन में एक ऐसे महानगर की छवि उभरती है जो रफ्तार और प्रकृति में भारत के अन्य सभी महानगरों से कहीं ज्यादा डाइनेमिक और जिंदादिल है। डेढ़ करोड़ की विशाल आबादी ढोने वाले इस महानगर की डायनमिज्म की वजह यहाँ की उपनगरीय ट्रेन व्यवस्था है जो पूरे के पूरे शहर को चौबीसों घंटे गतिशील बनाए रखती है।

गतिशीलता मानव ज़िंदगी के लिए बड़ा अर्थ रखती है। मानव विकास का आधार ही गतिशीलता रहा है। आदम युग से चलकर अगर हम उत्तर-आधुनिकता के इस दौर में पहुंच सके हैं तो यह हमारे आगे बढ़ने के संकल्प और जज्बा से ही संभव हुआ है।

पर कभी-कभी विवेकहीन गतिशीलता मानव की मुसीबतों का कारण भी बन जाता है। ऐसी गतिशीलता, ऐसी डायनमिज्म भी क्या जो आपको मनुष्य होने के एहसास से ही आज़ाद कर दे। क्या यह ठहरी हुई ज़िंदगी से ज्यादा खतरनाक नहीं? आइए मुम्बई की इसी गतिशीलता में छुपी एक विसंगति की बेबाक चर्चा करते हैं।

आप सभी ने गौर किया होगा कि मुम्बई के ‘लोकल ट्रेनों’ से यात्रा करने वालों की यह एक तल्ख सच्चाई बन गई है कि इनमें चढ़ते-उतरते वक्त वे सभी शालीनता,सभ्यता और शिष्टता को ताक पर रखने में जरा भी नहीं चूकते। इस दौरान वे इतने अराजक हो उठते हैं कि तथाकथित महानगरीय ‘शालीनता’ भी शर्मसार हो जाए। इन उपनगरीय ट्रेनों में चढ़ने-उतरने का आलम कुछ यूं होता है कि हर पीछे वाला अपने से आगे वाले को बेझिझक धक्का देता है।

एक दृश्य यह है: आप प्लैटफॉर्म पर खड़े हैं। आपको अपने काम पर पहुंचने की जल्दबाजी है। ट्रेन आने वाली है और लोग पूरी मुस्तैदी से झपट कर ट्रेन में चढ़ने को तैयार हैं। और लीजिए बातों-बातों में यह आ गई आपकी 8.15(सुबह) की सीएसटी जाने वाली ट्रेन...छह फुट चौड़े दरवाजे के बीच लोहे का एक खंभा... दर्जनों लोग उस खंभे को लपकने को तैयार...। और यह लीजिए अचानक आपके चारों-तरफ चीख-चिल्लाहट का माहौल उभर आता है...। ‘चल...चल आगे’, अबे आगे बढ़ ‘....’ के (हर पीछे वाला अपने से आगे वाले को जमकर धक्का देता है।) किसी का सिर टकराता है, किसी के हाथ में चोट लगती है। किसी की चप्पल छूट जाती है। कोई दरवाजे की बीचो-बीच फंस जाता है पर लोग एक-दूसरे को धकियाते हुई बस आगे निकलते रहते हैं...।

ऐसी स्थिति में लोगों के साथ किसी भी पल कोई दुर्घटना होने का अंदेशा बना रहता है। गौर करने की बात यह है कि लोग इस हालात से रोज-रोज रूबरू होते हैं पर उनके पास यह सोचने की फुरसत नहीं कि उनके आचरण में कुछ गलत भी हो रहा है, उनकी जीवन शैली में कुछ ‘ऐब्सर्ड ’ भी घट रहा है..। और यह शायद इसलिए कि वे सब उसी धार में शामिल हो चुके हैं। जिन्हें आज चोट लगी, धक्के लगे, कल वे ही धक्के मारने वालों के समूह में शामिल हो जाएंगे।

ट्रेन में भाग कर चढ़ना बुरी बात नहीं। अगर आप वक्त के पाबंद हैं और ऊपर से आपके यहाँ यातायात व्यवस्था की अपर्याप्तता हो तो आपको हर कहीं दौड़-भागकर ही चढ़ना-उतरना होगा। पर इस दौरान लोगों का एक-दूसरे पर हाथ जमाना, धक्के मारना, गालियाँ देना, हुंकार भरते हुए ट्रेन में सवार होना आखिर कैसी सभ्यता? क्या यह भी बताने के लिए किसी अंग्रेज या अमेरिकी को ही मुम्बई आना होगा?

मैंने मुम्बई लोकल में चढ़ने-उतरने के इस भद्दे रिवाज का बड़े गौर से निरीक्षण किया है। लोगों की इन असभ्य हरकतों में सिर्फ शहर के औसत मानसिकता वाले लोग ही नहीं है, बल्कि मल्टिनेशनल में काम करने वाले एक्जक्युटिव से लेकर दूसरे साफ-सफ्फाक कपड़ों में सजे लोग भी शामिल हैं। ये वही लोग हैं जो पिज़्ज़ा खाना अपने फैशनेबल होने का मानदंड समझते हैं। ये वे लोग हैं जो ऑफिस में फोन पर जरा ऊंचे स्वर में बात करने पर बगल वाले को ‘सॉरी’ या ‘एक्सक्यूज मी’ कहने में जरा भी परहेज नहीं करते, ये वे लोग हैं जो अपनी तरफ छोटी सी चीज़ के बढ़ाने पर किसी को ‘थैंक्स’ कहना नहीं भूलते। यानि ये कि दूसरों की परेशानियों का वे बड़ा ख्याल रखते हैं! पर जरा देखिए इन्हें अपने ही महानगर के लोकल ट्रेन में सवार होना नहीं आता!!

पता नहीं उनके अंदर की महानगरीय शिष्टता इन ट्रेनों में चढ़ते-उतरते कहाँ गुम हो जाती है। उनके अंदर से अचानक यह अहसास क्यों मिट जाता है कि उनके धक्के देने से किसी को चोट लग सकती है, किसी का सिर फट सकता है, कोई फिसल कर ट्रेन से नीचे गिर सकता है? या सबसे बड़ी बात यह कि सामने वाले को उनका यह आचरण कितना अप्रिय लग सकता हो?
यह चंद लोगों की मानसिकता नहीं बल्कि इसमें लोकल में चढ़ने-उतरने वाली पूरी की पूरी भीड़ की स्वीकृति होती है। जैसे वे मान बैठे हैं कि उनके पास इसका कोई निदान नहीं...जैसे उनकी इन असभ्य हरकतों में बुरा कुछ भी नहीं। तभी तो कई बार खाली ट्रेन में भी चढ़ते-उतरते वे अपनी इन जाहिलाना हरकतों से बाज नहीं आते। वे तब भी आगे वाले को धक्का मारना उतना ही जरूरी समझते हैं।

मैं मानता हूँ कि ये उपनगरीय ट्रेनें जितने कम समय के लिए स्टेशन पर रुकती हैं (15 से 20 सेकंड के लिए) उसमें 20 लोगों का ट्रेन में चढ़ जाना और 20 लोगों का ट्रेन से उतर जाना सचमुच एक कठिन काम है। पर इसे हम अराजक हुए बिना भी कर सकते हैं। इसके लिए हमें हुल्लड़बाजों की तरह चिंघाड़ने या आगे वाले को गालियाँ देने की कोई जरूरत नहीं।

महानगरीय तरक्की और चकाचौंध के बीच कई बार यह मानने को दिल करता है कि हमारी ज़िंदगी पहले से कहीं बेहतर हुई है। संस्कार के स्तर पर हम पहले से कहीं ज्यादा परिष्कृत हुए हैं। पर सच प्याज के छिलके की तरह होता है। ऐसे ही बिंदुओं पर आकर हमें ठहरना पड़ता है। जहाँ हमारे सामने होती है हर पल विकसित होते समाज के बीच पल-पल सिकुड़ती इंसानियत की तस्वीर, जिसमें इंसान जीता है, भागता-दौड़ता और सांसें तो लेता है पर उसे अपनी कमियों पर नज़र डालने की जरा भी फुरसत नहीं। एक अंधी दौड़...जिसमें सभी को बस शामिल हो जाना है। इस दौड़ में हम आगे तो बढ़ रहे हैं पर हमारी संवेदना सूखती जा रही है, खुद के होने का हमारा एहसास गुम होता जा रहा है।

रही बात ऐसे लोगों की जिन्हें लगता हो कि महानगरों में जीने के लिए ट्रेन-बसों में इसी तरह धक्के मारकर आगे बढ़ना जरूरी है, वर्ना वे यहाँ की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में पीछे रह जाएंगे (क्योंकि मैंने कई लोगों को यह कहते भी सुना है, ‘यहाँ की लोकल में ऐसे ही चढ़ते हैं...मैं आगे वाले को धक्का नहीं मारूंगा तो पीछे वाला मुझे मारेगा’।), तो उनकी समझ पर तरस आनी चाहिए। शायद वे यह बात नहीं जानते कि न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकवादी हमले में सैकड़ों जानें इसलिए भी गईं थीं कि लोग उस इमारत की लिफ्ट के आगे कतार में खड़े होकर अपनी बारी का इंतजार करने लगे थे। अपनी-अपनी जान बचाने के लिए वे भी बड़ी आसानी से तब अराजक हो सकते थे पर उन्हें उस ढहती इमारत में भी एक-दूसरे की तकलीफ़ों का उतना ही ख्याल था।

सुमित सिंह
मुम्बई

Tuesday, July 29, 2008

एक ताजमहल युकेलिप्टस की शाख पर


सावन की बारिश की वे बूंदें
जो पहली बार मुझे गीला कर गईं

गांव की ढलती वो बैंगनी शाम
जिसे पहली बार मैंने खिड़की से अंदर आते देखा

हवा के वे कोमल झौंके
जो पहली बार खुशबुओं से सने मिले

हल्की ओस में भींगी शरद की वो शर्मीली चांदनी
जिसमें पहली बार किसी के जुल्फ लहराए

जगमग सितारों से भरी वो रात
जिसमें पहली बार किसी के इंतजार का ख्याल आया मुझे

मंदिर के घंटे का वह स्वर
जिसमें पहली बार ‘नंजू’ अमर हुईं

लता के गीत के वे बोल
जो पहली बार मेरे दिल में उतरे

मेरी ज़िंदगी के वे दिन वो लम्हे
जो पहली बार मुझे तिलस्मी धुंध में लिपटे दिखाई पड़े

बिना प्लास्टर मेरा वह पुराना मकान
जो पहली बार मुझे ताजमहल लगा

मेरी खिड़की के सामने खड़ा
झूमता युकेलिप्टस का वह ऊंचा पेड़
जो पहली बार मेरे पवित्र ‘किशोर’ का हमराज बना...

एक दुनिया थी जिसमें पहली बार मुझे मेरा स्वप्नलोक मिला!
एक ज़िंदगी थी जिसमें पहली बार मुझे सांसें मिलीं।

एक घनी काली रात के बाद मुझे अचानक
रहस्यों को भेदने की जरूरत महसूस हुई

बस यहीं से मेरी बरबादी शुरू हुई
यहीं मेरे स्वप्नलोक ने मुझे बाहर निकाल दिया!!
(विशाल अहाते वाले हमारे पुराने मकान में सफेद साड़ियों वाली हमारी दादी, जिन्हें प्यार से हम नंजू पुकारते...जिन्होंने हमारे बचपन के कोमल एहसास को सींचा...।)

सुमित सिंह

Monday, July 21, 2008

मेरे ‘उसके’ बीच आतीं खिड़कियाँ

साल की पहली बारिश
में भींगने के बाद
भारी बादलों का धुआँ
झुक आया सहयाद्री की पहाड़ियों पर

पहाड़ियों की तरफ खुलती खिड़कियाँ...
सुबह से रात होने तक
एक टक निहारती...
प्रियतम के बदन से टकराकर आने वाली
खुशबुदार हवा के झोंकों के संग
झूमती
पानी के महीन छींटों से लिपटती
पहाड़ों की तरफ खुलती
जलाती हैं मुझे

कमरे के अंदर आने वाली
हवा की छुअन से पैदा हुई उत्तेजना!
बावजूद चुप रहता हूँ मैं उसके
शर्म आती है
खिड़की से कहने में
कि
मुझे भी 'वह' उतना ही प्यारा लगता है!

हवा जानती है सबकुछ
शायद पहाड़ियों को भी पता हो...।

सुमित सिंह

Tuesday, May 27, 2008

राष्ट्रपति महोदया! इस बंदूक ने सैकड़ों जानें ली हैं


आज की ताजा ख़बर! भारत की राष्ट्रपति महामहिम श्री प्रतिभा देवी पाटिल आतंकवादियों से जब्त एक बंदूक पाकर काफ़ी खुश हुईं। बंदूक देखकर उन्हें अपने पचपन की याद आ गई। बंदूक से निकलती गोलियों के एहसास मात्र से वे काफ़ी रोमांचित हो उठीं. चोर-सिपाही का खेल खेलने के लिए उनका दिल मचल उठा. चौंकिए मत यह हम नहीं कहते साथ की यह तस्वीर (तस्वीर: टाइम्स ऑफ इन्डिया, २४ मई २००८ )बयान करती है.ये हैं हमारे देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आसीन अधिकारी की बिंदास मानसिकता की तल्ख़ तस्वीर.राष्ट्रपति महोदया लगता है एक पल को आप यह भूल गए हैं किी आपके हाथ में जो मशीनगन है उसने कई सारी मासूम जिंदगी छीनी है, उसे मौत में तब्दील किया है. राष्ट्रपति महोदया ज़रा संभलिए.यह हथियार उन आतंकवादियों से छीना गया है जिनके नाम से गिरी हुई लाशें और भागते तड्पते अधजले लोगों की खौफनाक तस्वीर उभर आती है.यह आतंकवाद का हथियार है ना की खिलौने वाली बंदूक. महोदया शायद आपको इल्म नहीं किी आपने इस देश में आतंकवाद के शिकार हर इंसान की भावना को चोट पहुँचाया है.सुमित सिंह, मुंबई

Thursday, January 10, 2008

आम आदमी की जिंदगी में खुशहाली का एक और पन्ना

टाटा समूह के चेयरमेन रतन टाटा ने आज विश्व ऑटोमोबाइल इतिहास में अपना नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज करवा लिया।

उनकी बहुप्रतीक्षित ‘लखटकिया’ कार आज लोगों के सामने आ गई। एक ऐसी कार जो कम से कम प्रदूषण और इंधन में ज्यादा दूर दौड़ सके। और जिसकी कीमत समाज के आम से आम लोगों की पहुंच में हो।
रतन टाटा का यह ड्रीम प्रोजेक्ट था। भारत में अगर हर हाथ में मोबाइल की कल्पना पूरी होने की दिशा में आगे बढ़ चुकी है तो अब जरूरत थी, बजट के मुताबिक, प्रदूषण मुक्त और सुरक्षित यात्रा की।

खुशी है कि अब समाज के ऐसे लोग जो भोजन, वस्त्र, आवास की समस्या से ऊपर नहीं उठ पाते, वे भी अपने परिवार के साथ एक ‘कार’ (जिन्हें अबतक सड़कों पर भागते हुए देखी थी) में बैठकर यात्रा करने का मजा ले सकेंगे।

अब कोई परिवार झमाझम बारिश में अपनी स्कूटर पर भींगने के लिए मजबूर नहीं होगा, अब उनकी जिंदगी में सुरक्षा का एहसास जुड़ेगा।

‘टाटा’ विजनरी रहे हैं। भारतीय किसानों के हाथों में कुदाल-फावड़े और सुदूर देहात के लोगों के पीने के लिए हैंड पम्प बनाने से लेकर, नमक खिलाने और अब सुरक्षित और प्रदूषण-मुक्त यात्रा करवाने तक, उन्होंने उन्नत, खुशहाल और टिकाऊ समाज के निर्माण की अहम जिम्मेदारी निभाई।

व्यक्तिगत तौर से कहूं तो ऐसे देश में जहां टाटा जैसे विचारक उद्योगपति रहते हों, उसका नागरिक होने में गर्व महसूस होता है।
सुमित सिंह

Thursday, January 3, 2008

मुम्बई की सामुहिक छेड़-छाड़ वाली घटना पर आपकी क्या राय है?

31 दिसम्बर की रात जब हम अपने परिजनों को शुभकामनाएं दे रहे थे तो मुम्बई की सड़कों पर कुछ लोग अपनी जिंदगी के सबसे बुरे हादसे का शिकार हो रहे थे।

जुहू के जे.डब्ल्यू. मैरियट के सामने दो एनआरआई लड़कियों के साथ जो कुछ हुआ उसे हम कौन सा नाम दें? हादसा कहें या सामुहिक अपराध?, 40-50 लोगों की भीड़ को दो लड़कियों के साथ छेड़खानी करने का पर्याप्त वक्त मिलता रहा और पुलिस प्रशासन से लेकर आम आदमी तक इसे रोक नहीं पाए।

जाहिर है यह यह घटना किसी एक व्यक्ति की मानसिकता नहीं थी, इसके पीछे हाथ था एक पूरे के पूरे समूह का। तो क्या हम यह कहें कि हमारे सभ्य समाज अब सामुहिक अपराध की तरफ बढ़ रहा है?

वह मुम्बई जिसने अपनी जिंदगी में कई भीषण बम धमाके देखे, कई भयावह बाढ़ देखी, और तमाम तरह के हादसे देखे और फिर भी अपनी जिंदादिली कायम रखी, उसी मुम्बई के कुछ लोगों ने यह अपराध किया।

जरा सोचें क्यों हुआ यह? इस घटना को बढ़ावा देने वाले कौन-कौन से तत्व हैं? भविष्य में ऐसी घटनाएं न हो इसके बारे में आपकी क्या सलाह है? इस बेबाक बहस में शामिल होकर आप भी एक अपराध मुक्त और शांतिप्रिय समाज के निर्माण के लिए अपनी-अपनी भागीदारी सुनिश्चित करें।

मुझे आपकी राय का इंतजार है।

सुमित सिंह

Wednesday, January 2, 2008

रात का उत्सव

साल बदला
बदली तारीख
दीवारों पर टंगे कैलेंडरों पर टंके
अंक बदले
पर नहीं बदली जिंदगी

सारी रात जागते
थिरकते-बहकते हुए
साल तुम्हें विदा!

2008 की दस्तक! एक चमकीली भोर
साल की पहली सुबह!तुमने उत्सव नहीं मनाया पर
तुम्हारे आंगन में चिड़ियों की चहचाहट यूं ही थी

साल की पहली सुबह
एक दस्तावेज है
शहर-महानगरों के शोर का
भागते-लटकते लोगों का
अगली शाम की रोटी के जुगाड़ में
सुबह से देर शाम
खुरदरी खाल वाले हाथों का या
उन बेघरों का
जिन्होंने सर्दियों से ठिठुरते हुए सारी रात जागकर गुजार दी।
उनका भी
जिन्होंने कभी नहीं कहा,‘झूठा है तुम्हारा उत्सव’।

आसमां उत्सव नहीं मनाता आज भी उसका रंग नीला है
नहीं मनाती नदियां उत्सव
आज भी लरजती है
अब भी मचलती है
पहाड़ नहीं मनाते उत्सव
हमेशा की तरह आज भी
हमारे कारनामों के गवाह हैं।

तो जानिए कैलेंडर की तारीख बदलने से बहुत कुछ नहीं बदल जाता!!

बहरहाल...
आइए मिलकर कामना करें
सभी को मिले उजाले की खुशबू
नदियों की मस्ती
पहाड़ों के हौसले
और मिले अपना-अपना आसमां।
सुमित सिंह