...सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना....
-अवतार सिंह संधू उर्फ़ पाश

Wednesday, October 22, 2008

राज, रेलवे और चयन प्रक्रिया में सुधार


महाराष्ट्र की ताजा घटनाओं से केंद्र सरकार को तुरंत कम से कम एक सीख तो जरूर लेनी चाहिए कि केंद्रीय प्रतिष्ठानों में भर्ती की क्षेत्रवाद या राज्यवार प्रक्रिया चलाना कहीं न कहीं भारत की संघीय भावना को कमजोर करने वाला कदम साबित हुआ है।

केंद्रीय एजेंसियों में खाली पदों में नियुक्ति के लिए परीक्षाओं का आयोजन देशव्यापी केंद्रों पर होना चाहिए। फिर विभिन्न केंद्रों पर चयनित उम्मीदवारों को जहाँ जिस क्षेत्र या राज्य में जरूरत हो वहाँ उन्हें नियुक्त किया जाए। यह व्यवस्था जहाँ एक तरफ परीक्षाओं के लिए लंबी यात्रा की असुविधा से छात्रों को निजात दिलाएगी वहीं भारत संघ के भीतर क्षेत्रवाद की संकुचित और राष्ट्रीय एकता विरोधी भावना को बेवजह भड़कने से रोका जा सकता है।

इस व्यवस्था से किसी एक राज्य या क्षेत्र को ऐसा नहीं लगेगा कि उनके यहां कि रिक्तियों को देश के दूसरे हिस्से के उम्मीदवार हड़प ले जा रहे हैं। यूपीएससी की परीक्षाओं एवं चयन व्यवस्था रेलवे तथा बैंकिंग जैसी देशव्यापी एजेंसियों के लिए मिसाल होनी चाहिए।

सूरज प्रकाश

Monday, October 20, 2008

मुम्बई की सड़क पर पसरा एक पिता

लोअर परेल का ब्रिज
मुम्बई की सड़क पर पसरा एक पिता है

पिता इसलिए कि
उसकी छांव तले जहाँ सूरज की रोशनी नहीं पहुंचती
अक्टूबर की पीली ठंडी चांदनी को मुट्ठी में भरकर छींट आता है...

दिन के उजालों में
धूल में सने इंसान के कुछ अपरिभाषित परिवारों को
तेज रफ्तार भागते शहर से सुरक्षा मुहैय्या करवाता है
अपनी देख-रेख में अपने नीचे खड़ा करवाता है
एक घर
जिसके चारों कोने कल्पनाओं से भरसक खाली रहते हैं
जिनमें चार दुधमुँहें बच्चों को कुछ माँए रोज अपने हाथों से छोड़ जाती हैं

दिन भर ललाट से बहते पसीने की धार से मुम्बई में कुछ नहीं पिघलता
दोपहर के सूखे-बेजान धूल भरे अंधेरे में
कई दिनों की टटाई रोटियों को टुकड़ों में तोड़ती औरतों के पास
अपने घर को देने के लिए
भूख मिटाने के सबसे जरूरी सपने के सिवा कुछ भी नहीं बचता

लोअर परेल में रहने वाला यह पिता
उन्हें बिना कुछ कहे जिंदा रहने के लिए बहुत कुछ दे जाता है|

सुमित सिंह

Wednesday, October 15, 2008

आख़िरी बार रोता हुआ आदमी

पागल होने से पहले
आख़िरी बार रोते हुए आदमी को देखकर
किसी की रूह नहीं कांपती
कोई नहीं सोचता कि यह आदमी अब कभी अपने घर नहीं लौट पाएगा
कभी इसके सपनों में चिड़ियों से भरा आसमान नहीं टंकेगा
कभी वह अपनी पहचान नहीं खोल पाएगा
शहर के कुत्ते
देर तक उसे शक की निगाह से देखकर भौंकते रहेंगे...

कोई नहीं डरता उसे देखकर
कोई नहीं डरता यह सोचकर
कि पागल होते आदमी की ख़ामोशी जब शोर बनकर निगलेगी समूचे शहर को
तो हर कोई एक-दूसरे से ख़फ़ा दिखेगा...।

सुमित सिंह

Friday, October 10, 2008

शहर की एक लड़की जो किसी से प्रेम नहीं करती

सहयाद्री की पहाड़ियों की तरह
अंदर से सख्त
मगर बाहर हरेपन की एक नर्म और पतली परत लिए
है शहर की एक लड़की
वह उन लम्हों में प्रेम करने से अक्सर खुद को बचाती है
जब उसके चेहरे पर एक मासूम-सी मुस्कराहट मचल उठती है

अव्वल तो यह लड़की सूई में धागे नहीं पिरोती
और पिरोती भी है तो तब
जब अपने दिल को थोड़ा और कड़े करने की जरूरत समझती है
अपनी मासूमियत में फ़रेब छुपाने की कोशिश करती
तब वह इस काइनात की सबसे खतरनाक शै में एक होती है

वह थोड़ा कहती है....धीमे बोलती है
आचरण की सख्ती पसंद है उसे
पर मुहब्बत के नाम पर नाक सिकोड़ती है

अपनी माँ का पल्लू कब का छोड़ चुकी
कितनी बेरहम हो सकती है अंदर से
इसका अंदाज़ा नहीं होने देती
करियर..एस्पिरेशंस...एम्बिशंस...रिलिजन जैसे कई खूबसूरत औजारों से
कभी गलती से उग आई प्रेम की धार को काट डालती है

दिन भर के सूखे कपड़े उठाने आते वक्त
बाल्कनी में वह कभी सपने नहीं देखती...
उसकी आंखों में चमक होती है
पर उसे कभी किसी का इंतजार नहीं होता
सिर्फ अपने शहर की तरह जीना चाहती है
ज़िंदगी भर असंतृप्त...

धीरे-धीरे चमक खो रही है यह जवान लड़की
हर बार जो प्रेम करने से बचा ले जाती है खुद को सुरक्षित
...सचमुच रूह कंपा जाती है

यकीन मानिए मुल्क की आबादी में
लड़कियों की आबादी के अनुपात का बिगड़ना
उतना खौफ़नाक नहीं
जितना कि शहर की इस लड़की का वीरान होना पसंद करना है

डरावनी बात यह भी है
कि कविता की आने वाली पंक्तियों में यह लड़की दिखेगी तो सही
पर उसके प्रेम की कहीं कोई चर्चा नहीं होगी।

सुमित सिंह