...सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना....
-अवतार सिंह संधू उर्फ़ पाश

Tuesday, July 29, 2008

एक ताजमहल युकेलिप्टस की शाख पर


सावन की बारिश की वे बूंदें
जो पहली बार मुझे गीला कर गईं

गांव की ढलती वो बैंगनी शाम
जिसे पहली बार मैंने खिड़की से अंदर आते देखा

हवा के वे कोमल झौंके
जो पहली बार खुशबुओं से सने मिले

हल्की ओस में भींगी शरद की वो शर्मीली चांदनी
जिसमें पहली बार किसी के जुल्फ लहराए

जगमग सितारों से भरी वो रात
जिसमें पहली बार किसी के इंतजार का ख्याल आया मुझे

मंदिर के घंटे का वह स्वर
जिसमें पहली बार ‘नंजू’ अमर हुईं

लता के गीत के वे बोल
जो पहली बार मेरे दिल में उतरे

मेरी ज़िंदगी के वे दिन वो लम्हे
जो पहली बार मुझे तिलस्मी धुंध में लिपटे दिखाई पड़े

बिना प्लास्टर मेरा वह पुराना मकान
जो पहली बार मुझे ताजमहल लगा

मेरी खिड़की के सामने खड़ा
झूमता युकेलिप्टस का वह ऊंचा पेड़
जो पहली बार मेरे पवित्र ‘किशोर’ का हमराज बना...

एक दुनिया थी जिसमें पहली बार मुझे मेरा स्वप्नलोक मिला!
एक ज़िंदगी थी जिसमें पहली बार मुझे सांसें मिलीं।

एक घनी काली रात के बाद मुझे अचानक
रहस्यों को भेदने की जरूरत महसूस हुई

बस यहीं से मेरी बरबादी शुरू हुई
यहीं मेरे स्वप्नलोक ने मुझे बाहर निकाल दिया!!
(विशाल अहाते वाले हमारे पुराने मकान में सफेद साड़ियों वाली हमारी दादी, जिन्हें प्यार से हम नंजू पुकारते...जिन्होंने हमारे बचपन के कोमल एहसास को सींचा...।)

सुमित सिंह

Monday, July 21, 2008

मेरे ‘उसके’ बीच आतीं खिड़कियाँ

साल की पहली बारिश
में भींगने के बाद
भारी बादलों का धुआँ
झुक आया सहयाद्री की पहाड़ियों पर

पहाड़ियों की तरफ खुलती खिड़कियाँ...
सुबह से रात होने तक
एक टक निहारती...
प्रियतम के बदन से टकराकर आने वाली
खुशबुदार हवा के झोंकों के संग
झूमती
पानी के महीन छींटों से लिपटती
पहाड़ों की तरफ खुलती
जलाती हैं मुझे

कमरे के अंदर आने वाली
हवा की छुअन से पैदा हुई उत्तेजना!
बावजूद चुप रहता हूँ मैं उसके
शर्म आती है
खिड़की से कहने में
कि
मुझे भी 'वह' उतना ही प्यारा लगता है!

हवा जानती है सबकुछ
शायद पहाड़ियों को भी पता हो...।

सुमित सिंह