...सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना....
-अवतार सिंह संधू उर्फ़ पाश

Thursday, December 31, 2009

तुमसे प्यार करना अच्छा लगता है


तुमसे प्यार करना अच्छा लगता है

अच्छा लगता है तुम्हारा मुझसे नफ़रत करना
पास आना और फिर एक झटके में दूर चले जाना

तुम्हारी खामोशियों में छिपी बेचैनी को सुनना
तुम्हें सोचना
सताना
अच्छा लगता है


और तुम पूछ्ती हो क्यों?

बड़ा अच्छा लगता है
हिचकियां बांध कर रोते हुए किसी छोटे बच्चे को गोद में उठा लेना
और उसके आंसू पोंछ देना

किसी खाली शाम अपनी खिड़की के सामने की पहाड़ी पर
नीले अंधेरे और स्लेटी कोहरे को एक साथ गिरते देखना अच्छा लगता है

कभी-कभी अपने आप से बहुत दूर निकल आना
और एक जुनूनी इंसान को शहर के सड़कों पर
लंबी डगें भरते देखना भी अच्छा लगता है

बड़े होने पर मेरे पिता ने मुझे कभी बेटा कह कर नहीं पुकारा
फिल्मों में दिखने वाले पिता की तरह कभी दुलार नहीं किया
घर से विदा लेते वक्त
चुपचाप उनका दरवाजे तक मुझे छोड़ने आना
और बड़ी देर तक सिर झुकाए यूं ही खड़ा रहना मुझे बहुत अच्छा लगता है

छोटी-छोटी सुंदर अंगुलियों से रोटियां बनाती मां को याद करना अच्छा लगता है

कभी-कभी शहर की बत्ती गुल हो जाने पर
जुगनुओं की टिमटिमाहट की कल्पना करना
और माचिस की डिब्बियों में भर कर
उन्हें अपने कमरे में छोड़ देने की बात सोचना अच्छा लगता है

घने अंधेरों में फूलों के खिलने का ख़्वाब सजाना
और उसमें तुम्हारा मुस्कराता चेहरा देखना अच्छा लगता है

और तुम पूछ्ती हो क्यों?

तुम्हें सोचना...तुम्हारी खामोशियों को पीना
तुमसे प्यार करना
तुम्हें बाहों में भर कर रो पड़ने को दिल करना
इसलिए अच्छा लगता है...।

सुमित सिंह, मुम्बई

Thursday, December 24, 2009

अक्सर खेलती है वह आंख-मिचौली


आकाश में खिला चांद
जब झांक आया मेरे कमरे में कल रात
तो मुझे उसकी याद हो आई

...मेरे ख़्यालों के दरवाजे पर कब से दस्तक दे रही है वह

जो अंदर तो आना चाहती है बहुत
पर पांव ठिठक जाते हैं

वह..

जो कहना तो बहुत कुछ चाहती है
मगर लब कांप कर रह जाते हैं।

सुमित सिंह, मुम्बई

Wednesday, December 23, 2009

आओ सपने बिकते हैं यहां

इधर दो दिनों से देश के मीडिया और प्रबुद्ध तबकों द्वारा इस बात को लेकर हाय-तौबा मचाई जा रही है कि सीबीआई की अदालत द्वारा हरियाणा के पूर्व डीजीपी एस.पी.एस राठौड़ को सिर्फ 6 महीने की सजा सुनाई गई है। यह शख्स एक गंभीर अपराध का कुसूरवार है...इसलिए इसे सख्त से सख्त सजा होनी चाहिए।

राठौड़ पर वर्ष 1990 में एक किशोरी टेनिस खिलाड़ी रुचिका गिरहोत्रा के साथ यौन शोषण का जघन्य आरोप है। न्याय की गुहार के लिए अदालती चक्कर लगाने के बाद जब रुचिका को लगा कि अब दोषी को सजा नहीं मिल पाएगी तो उसने 3 साल बाद आत्महत्या कर ली।

इस बीच राठौड़ तमाम हथकंडों के जरिए रुचिका के परिवार वालों पर दबाव बनाता रहा। रुचिका के भाई पर चोरी का आरोप लगाकर बुरी तरह से पीटा गया और परिवार के सदस्यों को तरह-तरह से तंग किया गया।

यह सब तब हुआ था जब राठौड़, डीजीपी यानि पूरे हरियाणा राज्य के पुलिस बल का महानिदेशक हुआ करता है। यह मामला सीबीआई अदालत को सौंपा गया था और आज 19 सालों के बाद इसका आधा-अधूरा सा नतीजा आपके सामने है। राठौड़ को 6 महीने की सजा और साथ में तत्काल जमानत की सुविधा...जिससे वह उच्च न्यायालय में कानून के साथ अगले दौर की कबड्डी खेल सके।

अदालत की दलील यह है कि उसके पास पर्याप्त सुबूत नहीं। इस वक्तव्य पर एक पल के लिए तो भरोसा नहीं होता (कसाब के मामले पर पाकिस्तान के अविश्वासपूर्ण रवैये की तरह) पर अगर बात एक डीजीपी की सामर्थ्य-शक्ति और फुलप्रूफ तिकड़मों-प्रपंचों की बात जेहन में आती है तो आखिरकार स्वीकार कर लेने को दिल करता है।

पर मामला खत्म नहीं हुआ...असली बात यहीं से शुरु होती है.. असली चिंता यहीं से पनपती है...जनता की अदालत में...हमारे-आपके जेहन में। ‘क्या सीबीआई जैसी जांच एजेंसी इतनी अक्षम हो चुकी है कि पूरे 19 सालों के बाद भी उसके पास इस अभियुक्त के ख़िलाफ इतना पुख्ता सबूत नहीं मिल पाया कि इसे कड़ी सजा सुनाई जा सके।' अगर सच यही है तो प्रश्न यह भी उठता है कि बड़ी-बड़ी दूकानदारी के नाम पर देश में आज हो क्या रहा है? एक शख्स जो आम इंसान है, हालात का मारा है, महज इसलिए उसे आसानी से मुजरिम करार दिया जा सकता है.. पर सिस्टम को अपने पंजों में लेकर सैर करने वाले राठौड़ों जैसे तमाम गिद्धों पर निशाना साधने की कूवत किसी में नहीं? तो फिर क्यों न हम ‘भारत के लोग’ मिलकर सीबीआई, सरकार और मानवता के प्रति इस गैर-जिम्मेदार, रीढ़-विहीन व्यवस्था को अक्षम और मुर्दा करार दें और इससे छुटकारा पाने और एक नया सिस्टम बनाने के लिए आजादी के नए आंदोलन की तरफ पांव क्यों न बढ़ाएं?

कइयों को तो यह भी लग सकता है कि राठौड़ मामले पर हाय-तौबा मचाना अदालत का अवमानना है... तो इसपर मैं कहूंगा ‘हां है’। देश के उस भौड़े कानून और हिजड़ी न्यायिक व्यवस्था पर ‘थू’ जिसमें कसाब जैसे आतंकवादी के साथ 1 साल से अदालत में आंख-मिचौली का खेल खेला जा रहा है और देश का कीमती वक्त और करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाए जा रहे हैं। सैकड़ों लोगों की जान लेने वाले, देश की गरिमा को मिट्टी में मिलाने वाले इस अपराधी पर बिना टिकट रेलवे प्लेटफॉर्म पर प्रवेश करने की धारा लगाई जा रही है, तो सैकड़ों लोगों को अदालत में बुलाकर, कठघरे में खड़े कसाब की तरफ उंगली उठाकर पूछा जा रहा है, ‘क्या यही है वह अपराधी जिसे आपने 26/11 की रात मुम्बई की सड़कों पर गोलियां चलाते देखा था?’ हमारी व्यवस्था ऐसी क्यों कि एक अपराधी को सजा सुनाने से अहम उस न्यायिक प्रक्रिया को संपन्न करना होता है जो कानून की किताबों में लिखी गई होती है।

अमेरिका का मूल संविधान तो महज 4 पृष्ठों का है पर उन्हीं निर्देशों से वह अपने देश में तो एक बेमिसाल विधि-व्यवस्था कायम करता ही है, साथ ही दुनिया के हर कोने में जाकर अपना असरदार दखल कायम कर आता है। क्या वजह है कि भारत के एक विशाल संविधान के जरिए भी देश में हम एक फुलफ्रूफ व्यवस्था कायम नहीं कर सकते? वजह, हमारी नीयत में खोट है। और यह खोट भारत के हर उस इंसान की है, जिससे हमारी सरकार और व्यवस्था खड़ी होती है। इसलिए सब कुछ देखकर घाघों की तरह आसानी से झेल जाने वाले हमारे इस मुर्देपन पर भी उतना ही ‘थू’...।


... दुनिया खूबसूरत बनाने का एक सपना यह भी

मुम्बई की ज़िंदगी बड़ी नपी-तुली होती है। नियत समय पर जगना...नियत समय पर ऑफिस–दफ्तर, फैक्ट्रियों-व्यवसायों के लिए घर से निकलना... नियत समय पर स्टेशन पहुंचना...नियत समय पर लोकल ट्रेन पर लटक-फटक कर सवार होना, काम पर पहुंचना और नियत समय पर फिर घर वापस आना... नियत समय के लिए टीवी कार्यक्रम देखना और सो जाना। इस शहर में सब कुछ अपने कायदे से होता है...आपकी दख़लअंदाजी बर्दाश्त नहीं की जा सकती। चलती ट्रेन में सवार होने में यदि आपको चंद सेकंड की भी देरी हुई तो पीछे वाले सहयात्री ही आपपर फिकरे कस कर आपको उतार बाहर करेंगे। आप छूटती ट्रेन को देखते रह जाएंगे।

...कल मैं मुद्दतों बाद मुम्बई के करी रोड स्टेशन पर उतरा। मेरी नजर अचानक ही जूते पॉलिश करने वाले उस बूढ़े की तरफ चली गई, जहां मैं रोज उतरकर जूते पॉलिश करवाया करता था।

जब मैं ज़ूम टीवी में कार्यरत था तो इस स्टेशन पर मैं डेढ़ सालों तक नियत समय पर चढ़ता-उतरता रहा था...इसलिए इससे एक अनकहा-सा लगाव हो गया है। स्टेशन पर चहल-कदमी करता जरूरत से ज्यादा लंबा वह टीटीई, डेयरी स्टॉल के भीतर खड़े लंबे कुर्ते वाले वही सज्जन, प्लेटफॉर्म पर झाड़ू लगाते वही सफाई कर्मचारी...। पर जूते पॉलिश करने वाले उस मेहनतकश बुज़ुर्ग का चेहरा कल नज़र नहीं आया। मुझे लगा मेरा कुछ छूट रहा है...मन उदास हो उठा। मैंने पास के एक जूते पॉलिश करने वाले के सामने अपने जूते उतारते हुए, उस बुज़ुर्ग के बारे में पूछा तो जवाब मिला कि वह इन दिनों गांव चले गए हैं...उनका बेटा बीमार था।

यह सुनकर मुझे राहत मिली। मेरे जेहन में एक जोड़ी आंखों में तैरते जिंदा सपनों की वह अनोखी चमक तैरने लगी।
हर रोज की तरह तरह उस दिन भी मैंने अपने जूते उनसे पॉलिश करवाए और पैसे चुकाने के लिए अपना वॉलेट निकाला था। पर वॉलेट में छुट्टे नदारत...सिर्फ सौ के नोट थे। मैंने हिचकिचाते हुए एक नोट उनकी तरफ बढ़ाया। उन्होंने एक बार लकड़ी की पेटी में निगाह दौड़ाया और अफ़सोस ज़ाहिर कर पास के एक नाश्ते के स्टॉल पर लगभग दौड़ते हुए जाकर छुट्टे करवा लाए। मुझे अपने किए पर झिझक महसूस हो रही थी। जैसे ही उन्होंने 95 रुपए वापस किए, तो मैंने कहा- ‘चाचा, माफ कीजिए, मैंने आपको परेशान कर दिया...।’
उन बुज़ुर्ग ने बेहद मासूम मुस्कराहट के साथ जवाब दिया ‘अरे नहीं बेटा, गलती तो मेरी भी थी...मेरे पास इतने छुट्टे क्यों नहीं थे कि मैं झटपट तुम्हें वापस कर सका... आखिर तुमने तो मुझे पैसे दिए ही।’ मैं उनका यह जवाब सुनकर सकते में था। मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया, ‘चाचा सब यदि आपके जैसा सोचने लगें तो यह दुनिया कितनी सुंदर हो जाएगी।’
उनकी जो अगली प्रतिक्रिया थी, वह और भी अनपेक्षित- ‘बेटा इस दुनिया को आखिर सुंदर तो हमें ही बनाना है।’

मुझे लगा जैसे मैं कोई किताब पढ़ रहा हूं या कोई दिलकश फ़िल्म देख रहा हूं। मेरा दिल किया मैं उस बुज़ुर्ग को चूम लूं और चीख-चीख कर कहूं, ‘आओ...आओ सस्ती कीमत में इनसे खूबसूरत, चमकीले सपने खरीदकर घर ले जाओ।'

कल उसी वक्त मेरे मन में एक कौंध सी उठी... दादर स्टेशन पर ‘मनसे’ के कार्यकर्ताओं ने सोए से उठाकर कई साधुओं और फ़कीरो को पिछ्ली रात जमकर लात-घूसों से पीटा...।
सुमित सिंह

Sunday, December 13, 2009

मेरा ख़ुदा छू आएगा तुम्हें जब...

कब तक दूर रहोगे मुझसे
बचकर जाओगे कहां तक

मेरी सांसे करेंगी पीछा तुम्हारा
ख़्यालों के झौंकों से मेरे बार-बार
‘धक-से’ दिल करता रहेगा तुम्हारा

बीते लम्हों को भुलाने की कोशिश में
वक़्त का हर कतरा तेरी
यादों की गली में उमड़ता रहेगा

कब तक रूठोगे मुझसे
कहां तक जाओगे तुम
हर बार तड़प उठोगे हर बार फफक पड़ोगे
मेरे एहसासात ढ़ूंढ निकालेंगे तुम्हें जब

किस-किस से बचोगे कहां-कहां फिरोगे
छुपा न पाओगे ख़ुद को कभी तुम
मेरा ख़ुदा छू आएगा तुम्हें जब!!

खत्म भी करो ये आंख-मिचौली
अब तो थम जाओ
रुक भी जाओ अब...

अब तो रुक जाओ
थम भी जाओ अब...।

सुमित सिंह, मुम्बई

Saturday, December 12, 2009

इस पत्रकार की बेबसी पर क्या आप कोई मदद कर सकते हैं?

बिहार के एक पत्रकार नीरज झा ने कटिहार में मीडिया, प्रशासन और गुंडागर्दी की घिनौनी साजिश को लेकर आवाज उठाई है। उनके मुताबिक इस मुहिम में उनकी जान-माल को भी खतरा हो सकता है। उन्हें हमारी-आपकी जरूरत है। कृपया आप से कुछ बन पाए तो उनकी मुहिम में जरूर भागीदार बनें। उनके द्वारा दी गई खबर को मैं ज्यों का त्यों पोस्ट कर रहा हूं।
सुमित सिंह, मुम्बई



पैसे लेकर मर्डर की खबर पी गए?

जिलों में भ्रष्ट मीडिया और करप्ट ब्यूरोक्रेशी का घातक गठजोड़ कहर बरपाने लगा : बिहार के कटिहार जिले के इलेक्ट्रानिक मीडिया के एक पत्रकार ने किया खुलासा : कनीय अभियंता की हत्या के आरोपी अधिकारी को मीडिया का अभयदान : मीडियाकर्मियों के आगे इंसाफ के लिए गुहार लगा रही कनीय अभियंता की पत्नी : किसी ने हत्यारोपी के खिलाफ खबर नहीं दिखाई : जिसने खबर पर काम करने की कोशिश की उसे पत्रकारों ने ही गालियां दीं और धमकाया : हत्यारोपी के प्रभावशाली होने से पुलिस हाथ नहीं डाल रही : मेरा नाम नीरज कुमार झा है। मैं बिहार के कटिहार में लाइव इंडिया के लिए काम करता हूं। मुझे ये कहते हुए काफी शर्म आ रही है की यहां की पत्रकारिता की हालत बहुत ही खराब है। कटिहार में पत्रकारों का मन न्यूज का काम करने से ज्यादा पैसे के लेन-देन में लगता है। यहां 'खबरों की खबर' नाम से एक लोकल न्यूज़ चैनल कटिहार के डीएम की मेहरबानी पर चलता है। इसका काम बस यही है कि पत्रकारिता के नाम पर लोगो को परेशान करना और उनसे पैसे लेना।

इन लोगों का दबदबा बहुत ज्यादा है। यहीं के एक स्थानीय पत्रकार ने राज्य सूचना आयोग में इस चैनल के अवैध प्रसारण को बंद करने की गुहार लगाई थी। आयोग से इसे बंद करने का आदेश भी कटिहार के डीएम को मिला फिर भी आज 4 माह बीत जाने के बाद भी चैनल धड़ल्ले से चल रहा है। इस चैनल के लोगों और कटिहार की मीडिया के ज्यादातर लोगों का मतलब खबर को ईमानदारी से चलाना नहीं बल्कि खबरों को जरिया बनाकर पैसे लेना होता है।

जो पत्रकार इनके साथ इस धंधे में नहीं रहता वो या तो किसी चैनल में काम करने के काबिल नहीं माना जाता या फिर उसके काम में तरह-तरह की अड़चन पैदा की जाती है। एक घटना का जिक्र करना चाहूंगा। कटिहार के जिला शिक्षा अधीक्षक प्रेमचंद्र कुमार एक कनीय अभियंता की हत्या के आरोपी हैं। उन पर बिहार के मुख्यमंत्री के आदेश पर कटिहार के सहायक थाने में मुकदमा दर्ज हुआ। केस नंबर 372/09 है। इसकी खबर कटिहार की मीडिया ने प्रसारित नहीं किया। वजह, जिला शिक्षा अधीक्षक प्रेमचंद्र कुमार से मोटी रकम इन लोगों ने हासिल कर लिया था।

कटिहार की पुलिस में गहरी पैठ रखने वाले जिला शिक्षा अधीक्षक प्रेमचंद्र कुमार की गिरफ़्तारी तक नहीं हुई। दो छोटे-छोटे बच्चे के साथ रोती बिलखती कनीय अभियंता शशि भूषण प्रशाद की पत्नी कुमारी संगीता सिन्हा ने कटिहार के हर मीडिया वाले के सामने इंसाफ की गुहार लगाई पर जिले की मीडिया को किसी भावना या कर्तव्य से कोई लेना-देना नहीं। इनका ईमान सिर्फ पैसा है। पैसे जिला शिक्षा अधीक्षक प्रेमचंद्र कुमार ने दे ही दिया है तो खबर काहे की चलानी है। इन्होंने तो खबर अपने ऊपर वालों को भी नहीं बताया। लेकिन मैंने इसी खबर को अपने उपर बताया और मुझे खबर भेजने को कहा गया। लेकिन जब मैं जिला शिक्षा अधीक्षक प्रेमचंद्र कुमार के पास बाइट लेने गया तो उन्होंने कोई भी बाइट देने से इनकार कर दिया। कटिहार के मेरे मीडिया के भाई लोग मुझे गाली देने लगे और कहा कि तुम्हें जान से हाथ धोना है तो इस खबर को करो।

मैं कटिहार का नहीं हूं इसलिए यहां के स्थानीय पत्रकार मुझे कुछ ज्यादा ही डराते धमकाते हैं। पर मेरी चिंता कनीय अभियंता शशि भूषण प्रसाद की पत्नी और उनके बच्चे हैं जो इंसाफ के लिए भटक रहे हैं पर उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है। इस मामले में अगर कोई मदद कर-करा पाए तो हम सब उम्मीद कर सकते हैं कि बहुत सारी खराब स्थितियों-परिस्थितियों के बावजूद पीड़ितों को अंततः न्याय मिल जाता है।

-नीरज कुमार झा

कटिहार, बिहार

09431664370

Thursday, December 3, 2009

टीवी धारावाहिकों के जरिए व्यवस्था परिवर्तन की बयार


दो-तीन साल पहले तक जब टेलीविजन चैनलों पर सास-बहू के शातिराना झगड़े, घरेलू रंजिशों की दास्तां पेश करने वाले धारावाहिकों का दौर चल रहा था तो मैं यही सोचा करता था कि ये टीवी चैनल लोगों के सामने क्या परोस रहे हैं? इनसे हमारे समाज, उसके लोगों की सोच, उनके जीवन में कितना सुधार आ सकता है? हर बार मुझे जवाब ‘ना’ में ज्यादा सुनाई पड़ते। मैं तब और हताश हो उठता जब उन धारावाहिकों के घरेलू उठा-पटक को पड़ोस और परिचितों के घरों में घटते देखता था। यह दौर था ‘बालाजी टीलीफिल्म’ का जिसके धारावाहिकों में कहानी के विषय-वस्तु की बजाए शानदार सेट और पात्रों के लकदक कॉस्ट्यूम के तिलस्म दर्शकों को खूब लुभाते थे।

पर पिछ्ले 2-3 सालों से मेरी यह धारणा टूटने लगी है। इन वर्षों में टीवी धारावाहिकों के कंटेंट और विषय में बड़े बदलाव आए। वर्ष 2008 के मध्य में ‘कलर्स’ टीवी चैनल ने जहां बिल्कुल नए और रोचक विषयों को लेकर अपने कई शो पेश किए तो ‘सब टीवी’ और ‘ज़ी’ जैसे अन्य चैनलों पर भी कई सारे नए धारावाहिक दिखाई पड़े, जिन्होंने दर्शकों को सास-बहू के साजिशों की दमघोंटू चहारदीवारी से बाहर निकाल कर एक नई वैचारिक भूमि दी। इनकी कहानियां घर से बाहर निकल कर किसी न किसी समाज की सच्चाइयों पर सजी हैं। इन कहानियों ने दर्शकों को उनके देश के असली समाज और उसके सरोकारों से जोड़ना शुरु किया। ‘अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो’ (ज़ी टीवी), ‘बालिका वधू’ (कलर्स), ‘इन देस न आना लाडो’ (कलर्स), ‘पवित्र रिश्ता’ (ज़ी टीवी), लापतागंज (सब टीवी), 12/24 ‘करोल बाग’ (ज़ी टीवी), ‘आपकी अंतरा’ (ज़ी टीवी) ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ (सब टीवी), जैसे कई धारावाहिक ऐसे हैं जो मध्यम वर्गीय दर्शकों (महिलाओं की भारी तादाद) को तो अपनी ओर खींच ही रहे हैं साथ ही अपने सशक्त विषयों से उन्हें सोचने को मजबूर भी करते हैं।

यहां मैं अपने ही घर का उदाहरण लेता हूं। घर की महिलाएं (मां, भाभियां) ऐसे धारावाहिकों को बड़े गौर से देखती हैं, साथ ही उनके जरिए समाज की गलत परंपराओं को कोसती भी नजर आती हैं। इन धारावाहिकों के जरिए भारत के मध्यम वर्गीय टीवी दर्शकों की मानसिकता में आज यह बड़ा परिवर्तन आया है कि अब वे सिर्फ मनोरंजन ही नहीं करते बल्कि अपने परिवेश में सदियों से चले आ रहे अमानवीय और क्रूर व्यवस्था का विरोध भी करने लगे हैं। महिला उत्पीड़न, बाल विवाह, भ्रूण हत्या, जाति-उत्पीड़न जैसे विषयों पर अब उनकी स्पष्ट और जिम्मेदार राय बनने लगी है।

अभी पिछले दिनों की बात है। ‘12/24 करोलबाग’ धारावाहिक के जिस एपिसोड में टुच्चे, ऐय्याश दूल्हे राजीव भल्ला को भरी बारातियों के सामने बुरी तरह अपमानित कर सिमी के पिता और परिवार वालों ने वापस किया था, लोगों ने इसकी जमकर तारीफ की। बेटी के पिता के उसके इस साहस भरे फैसले की खूब सराहना हुई। उसी तरह ‘इस देस न आना लाडो’ की दबंग और क्रूर ‘अम्मा जी’ की करतूतों (भ्रूण-हत्या से लेकर तमाम तरह के प्रपंचों) को दर्शक पानी पी-पी कर कोसते दिखते हैं। बिहार की सामंती व्यवस्था की जघन्यता पर आधारित कहानी ‘अगले जनम मोहे बिटिया की कीजो, नारी-सशक्तीकरण की अद्भुत मिसाल है। औरत को पांव की जूती समझी जाने वाली मध्ययुगीन घृणित व्यवस्था से लाली और शेखर की मां बहादुरी से लड़ती दिखाई पड़ती हैं।

जाहिर है भारतीय समाज में घरेलू हिंसा और पुरुषवादी साजिशों-व्यवस्थाओं की शिकार औरतें इन धारावाहिकों के ऐसे पात्रों से जाने-अनजाने प्रेरित होकर अपने उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ युद्ध का बिगुल फूंकेंगी और उम्मीद करें कि हमारे समाज में एक नए और अनकहे परिवर्तन की बयार चल पड़ेगी।
सुमित सिंह,मुम्बई