...सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना....
-अवतार सिंह संधू उर्फ़ पाश

Thursday, July 30, 2009

शहर...रात...नो मैंस लैंड

सरसों के महकते फूलों
और आम की मंजरियों की खुशबुओं से
अल्लसुबह भींगते शहर में
रात की पाली के
वार्ड-ब्य़ाय, जमादारिनें, नर्स
और अस्पताल की मुर्दा-गाड़ी के चालकों तक
नहीं पहुंचती कोई खुशबू
उनकी आंखें के सामने टूटती हैं इंसानों की सांसें
सुनाई पड़ती हैं
अस्पताल से निकलते स्ट्रेचरों की बीच कई सारी सिसकियां

सवेरा होने से पहले
ऐन 3 से 4 के बीच
जब शहर में उड़ा करती हैं गीली हवाएं
हमारे मरने का सबसे मुफ़ीद वक्त होता है।
सड़कों पर फटते अंधेरे पर एक ताजा इबारत भी
सफाईकर्मी जिसे मुंह अंधेरे बुहार कर किनारे लगा देते हैं
-‘तुम्हारे सखा, परिजन या प्रेमिका की आंखों की पुतलियां हरकतें करनी बंद कर देती हैं और
तुम बिना किसी हील-हुज्जत के देखते रहते रह जाते हो चुपचाप
जैसे सिनेमाघरों के पर्दों पर रेप सीन के आने पर तुम बनाते हो बड़ी बेचारगी से चुप्पियों के घरोंदे
और घबराकर निकल पड़ते हो हर सुबह ‘मॉर्निग वॉक’ के लिए’

...शहर को आदत है अनजान बने रहने की।

कभी सुना है कुत्तों के बारे में? वे नहीं मरते नीम अंधेरे
शहर के नाइट वाचमैन भी
नहीं रात भर की कोशिशों के बाद बगीचों के वे फूल भी नहीं
जिनकी बाहरी कतार की पंखुड़ियां सुबह की पहली रोशनी में ही फैलती हैं
शहर की झुग्गियों से उठने वाले धुओं के बीच वे नीम ख्वाब औरतें भी नहीं
जो झाड़ू लेकर मुंह अंधेरे अधसोई सड़कों पर आकर खड़ी हो जाती हैं
चादरों पर जिस वक्त स्खलन होता है इंसानी रिश्तों पर बर्फ की एक परत भी जमती है
ऐन 3 से 4 के बीच सब कुछ होता है

...रात के इस ‘नो मैंस लैंड’ में हम अंधेरे के शिकार होते हैं।
सुमित सिंह