...सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना....
-अवतार सिंह संधू उर्फ़ पाश

Tuesday, August 5, 2008

माफ़ करें, हमें आपकी परवाह नहीं!!

मुम्बई की चर्चा चले तो जेहन में एक ऐसे महानगर की छवि उभरती है जो रफ्तार और प्रकृति में भारत के अन्य सभी महानगरों से कहीं ज्यादा डाइनेमिक और जिंदादिल है। डेढ़ करोड़ की विशाल आबादी ढोने वाले इस महानगर की डायनमिज्म की वजह यहाँ की उपनगरीय ट्रेन व्यवस्था है जो पूरे के पूरे शहर को चौबीसों घंटे गतिशील बनाए रखती है।

गतिशीलता मानव ज़िंदगी के लिए बड़ा अर्थ रखती है। मानव विकास का आधार ही गतिशीलता रहा है। आदम युग से चलकर अगर हम उत्तर-आधुनिकता के इस दौर में पहुंच सके हैं तो यह हमारे आगे बढ़ने के संकल्प और जज्बा से ही संभव हुआ है।

पर कभी-कभी विवेकहीन गतिशीलता मानव की मुसीबतों का कारण भी बन जाता है। ऐसी गतिशीलता, ऐसी डायनमिज्म भी क्या जो आपको मनुष्य होने के एहसास से ही आज़ाद कर दे। क्या यह ठहरी हुई ज़िंदगी से ज्यादा खतरनाक नहीं? आइए मुम्बई की इसी गतिशीलता में छुपी एक विसंगति की बेबाक चर्चा करते हैं।

आप सभी ने गौर किया होगा कि मुम्बई के ‘लोकल ट्रेनों’ से यात्रा करने वालों की यह एक तल्ख सच्चाई बन गई है कि इनमें चढ़ते-उतरते वक्त वे सभी शालीनता,सभ्यता और शिष्टता को ताक पर रखने में जरा भी नहीं चूकते। इस दौरान वे इतने अराजक हो उठते हैं कि तथाकथित महानगरीय ‘शालीनता’ भी शर्मसार हो जाए। इन उपनगरीय ट्रेनों में चढ़ने-उतरने का आलम कुछ यूं होता है कि हर पीछे वाला अपने से आगे वाले को बेझिझक धक्का देता है।

एक दृश्य यह है: आप प्लैटफॉर्म पर खड़े हैं। आपको अपने काम पर पहुंचने की जल्दबाजी है। ट्रेन आने वाली है और लोग पूरी मुस्तैदी से झपट कर ट्रेन में चढ़ने को तैयार हैं। और लीजिए बातों-बातों में यह आ गई आपकी 8.15(सुबह) की सीएसटी जाने वाली ट्रेन...छह फुट चौड़े दरवाजे के बीच लोहे का एक खंभा... दर्जनों लोग उस खंभे को लपकने को तैयार...। और यह लीजिए अचानक आपके चारों-तरफ चीख-चिल्लाहट का माहौल उभर आता है...। ‘चल...चल आगे’, अबे आगे बढ़ ‘....’ के (हर पीछे वाला अपने से आगे वाले को जमकर धक्का देता है।) किसी का सिर टकराता है, किसी के हाथ में चोट लगती है। किसी की चप्पल छूट जाती है। कोई दरवाजे की बीचो-बीच फंस जाता है पर लोग एक-दूसरे को धकियाते हुई बस आगे निकलते रहते हैं...।

ऐसी स्थिति में लोगों के साथ किसी भी पल कोई दुर्घटना होने का अंदेशा बना रहता है। गौर करने की बात यह है कि लोग इस हालात से रोज-रोज रूबरू होते हैं पर उनके पास यह सोचने की फुरसत नहीं कि उनके आचरण में कुछ गलत भी हो रहा है, उनकी जीवन शैली में कुछ ‘ऐब्सर्ड ’ भी घट रहा है..। और यह शायद इसलिए कि वे सब उसी धार में शामिल हो चुके हैं। जिन्हें आज चोट लगी, धक्के लगे, कल वे ही धक्के मारने वालों के समूह में शामिल हो जाएंगे।

ट्रेन में भाग कर चढ़ना बुरी बात नहीं। अगर आप वक्त के पाबंद हैं और ऊपर से आपके यहाँ यातायात व्यवस्था की अपर्याप्तता हो तो आपको हर कहीं दौड़-भागकर ही चढ़ना-उतरना होगा। पर इस दौरान लोगों का एक-दूसरे पर हाथ जमाना, धक्के मारना, गालियाँ देना, हुंकार भरते हुए ट्रेन में सवार होना आखिर कैसी सभ्यता? क्या यह भी बताने के लिए किसी अंग्रेज या अमेरिकी को ही मुम्बई आना होगा?

मैंने मुम्बई लोकल में चढ़ने-उतरने के इस भद्दे रिवाज का बड़े गौर से निरीक्षण किया है। लोगों की इन असभ्य हरकतों में सिर्फ शहर के औसत मानसिकता वाले लोग ही नहीं है, बल्कि मल्टिनेशनल में काम करने वाले एक्जक्युटिव से लेकर दूसरे साफ-सफ्फाक कपड़ों में सजे लोग भी शामिल हैं। ये वही लोग हैं जो पिज़्ज़ा खाना अपने फैशनेबल होने का मानदंड समझते हैं। ये वे लोग हैं जो ऑफिस में फोन पर जरा ऊंचे स्वर में बात करने पर बगल वाले को ‘सॉरी’ या ‘एक्सक्यूज मी’ कहने में जरा भी परहेज नहीं करते, ये वे लोग हैं जो अपनी तरफ छोटी सी चीज़ के बढ़ाने पर किसी को ‘थैंक्स’ कहना नहीं भूलते। यानि ये कि दूसरों की परेशानियों का वे बड़ा ख्याल रखते हैं! पर जरा देखिए इन्हें अपने ही महानगर के लोकल ट्रेन में सवार होना नहीं आता!!

पता नहीं उनके अंदर की महानगरीय शिष्टता इन ट्रेनों में चढ़ते-उतरते कहाँ गुम हो जाती है। उनके अंदर से अचानक यह अहसास क्यों मिट जाता है कि उनके धक्के देने से किसी को चोट लग सकती है, किसी का सिर फट सकता है, कोई फिसल कर ट्रेन से नीचे गिर सकता है? या सबसे बड़ी बात यह कि सामने वाले को उनका यह आचरण कितना अप्रिय लग सकता हो?
यह चंद लोगों की मानसिकता नहीं बल्कि इसमें लोकल में चढ़ने-उतरने वाली पूरी की पूरी भीड़ की स्वीकृति होती है। जैसे वे मान बैठे हैं कि उनके पास इसका कोई निदान नहीं...जैसे उनकी इन असभ्य हरकतों में बुरा कुछ भी नहीं। तभी तो कई बार खाली ट्रेन में भी चढ़ते-उतरते वे अपनी इन जाहिलाना हरकतों से बाज नहीं आते। वे तब भी आगे वाले को धक्का मारना उतना ही जरूरी समझते हैं।

मैं मानता हूँ कि ये उपनगरीय ट्रेनें जितने कम समय के लिए स्टेशन पर रुकती हैं (15 से 20 सेकंड के लिए) उसमें 20 लोगों का ट्रेन में चढ़ जाना और 20 लोगों का ट्रेन से उतर जाना सचमुच एक कठिन काम है। पर इसे हम अराजक हुए बिना भी कर सकते हैं। इसके लिए हमें हुल्लड़बाजों की तरह चिंघाड़ने या आगे वाले को गालियाँ देने की कोई जरूरत नहीं।

महानगरीय तरक्की और चकाचौंध के बीच कई बार यह मानने को दिल करता है कि हमारी ज़िंदगी पहले से कहीं बेहतर हुई है। संस्कार के स्तर पर हम पहले से कहीं ज्यादा परिष्कृत हुए हैं। पर सच प्याज के छिलके की तरह होता है। ऐसे ही बिंदुओं पर आकर हमें ठहरना पड़ता है। जहाँ हमारे सामने होती है हर पल विकसित होते समाज के बीच पल-पल सिकुड़ती इंसानियत की तस्वीर, जिसमें इंसान जीता है, भागता-दौड़ता और सांसें तो लेता है पर उसे अपनी कमियों पर नज़र डालने की जरा भी फुरसत नहीं। एक अंधी दौड़...जिसमें सभी को बस शामिल हो जाना है। इस दौड़ में हम आगे तो बढ़ रहे हैं पर हमारी संवेदना सूखती जा रही है, खुद के होने का हमारा एहसास गुम होता जा रहा है।

रही बात ऐसे लोगों की जिन्हें लगता हो कि महानगरों में जीने के लिए ट्रेन-बसों में इसी तरह धक्के मारकर आगे बढ़ना जरूरी है, वर्ना वे यहाँ की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में पीछे रह जाएंगे (क्योंकि मैंने कई लोगों को यह कहते भी सुना है, ‘यहाँ की लोकल में ऐसे ही चढ़ते हैं...मैं आगे वाले को धक्का नहीं मारूंगा तो पीछे वाला मुझे मारेगा’।), तो उनकी समझ पर तरस आनी चाहिए। शायद वे यह बात नहीं जानते कि न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकवादी हमले में सैकड़ों जानें इसलिए भी गईं थीं कि लोग उस इमारत की लिफ्ट के आगे कतार में खड़े होकर अपनी बारी का इंतजार करने लगे थे। अपनी-अपनी जान बचाने के लिए वे भी बड़ी आसानी से तब अराजक हो सकते थे पर उन्हें उस ढहती इमारत में भी एक-दूसरे की तकलीफ़ों का उतना ही ख्याल था।

सुमित सिंह
मुम्बई