लोअर परेल का ब्रिज
मुम्बई की सड़क पर पसरा एक पिता है
पिता इसलिए कि
उसकी छांव तले जहाँ सूरज की रोशनी नहीं पहुंचती
अक्टूबर की पीली ठंडी चांदनी को मुट्ठी में भरकर छींट आता है...
दिन के उजालों में
धूल में सने इंसान के कुछ अपरिभाषित परिवारों को
तेज रफ्तार भागते शहर से सुरक्षा मुहैय्या करवाता है
अपनी देख-रेख में अपने नीचे खड़ा करवाता है
एक घर
जिसके चारों कोने कल्पनाओं से भरसक खाली रहते हैं
जिनमें चार दुधमुँहें बच्चों को कुछ माँए रोज अपने हाथों से छोड़ जाती हैं
दिन भर ललाट से बहते पसीने की धार से मुम्बई में कुछ नहीं पिघलता
दोपहर के सूखे-बेजान धूल भरे अंधेरे में
कई दिनों की टटाई रोटियों को टुकड़ों में तोड़ती औरतों के पास
अपने घर को देने के लिए
भूख मिटाने के सबसे जरूरी सपने के सिवा कुछ भी नहीं बचता
लोअर परेल में रहने वाला यह पिता
उन्हें बिना कुछ कहे जिंदा रहने के लिए बहुत कुछ दे जाता है|
सुमित सिंह
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