बचपन से कहीं मेरे मन में अटका था
कि ‘लोगों को जीने के बहाने चाहिए
नहीं तो वे मौत में ग़र्क हो जाएंगे’...
लगता है इस सच पर अब धूल की एक पुरानी परत बिछ गई है
सुबह की चाय के साथ अखबार के पहले पन्ने से
निकलकर एक दारुण चीख
हर रोज मेरे कमरे में फैल जाती है
-दिल्ली में भयानक विस्फोट!
15 लोग मारे गए।
आतंकवादियों का हाथ...
या कि नाजायज संबधों को लेकर हत्या
पत्नी ने बेटी और पिता को मौत की नींद सुलाया!
या फिर कर्ज़ के बोझ से पांच ने फिर गले में फंदे लगाए
या यह कि ट्रेन में आग लगी...लगाई गई..
सामने से आती हुई ट्रेन प्लैटफॉर्म पर खड़ी ट्रेन से जा टकराई.. मानवीय भूल!
40 फुट गहरे खड्डे में गिरी स्कूल बस
सारे बच्चे मृत! लाश 8 घंटे पानी में तैरती रही
या मंत्री को एक रात जिस्म देने से मना किया
बदले में मिली रूह कंपा देने वाली मौत
या प्रेमिका की बेवफाई पर नींद की गोलियाँ गटकी
लाश चौराहे पर खड़ी कार में पाई गई
साढ़े सत्तानवे फीसदी नम्बर से सूबे भर में प्रथम
पर असंतुष्ट...रात सोते वक्त एक फिल्म देखी
और अपनी कलाई की नस काट ली...
....सच इस रात की सुबह नहीं
या कहीं कुछ न हो तो
मंदिर में भगदड़ मचने से 170 लोगों के मारे जाने की सूचना ही सही
न जाने क्या-क्या.. फेहरिस्त लंबा है
किसी बच्चे के रोने से अब मुहल्ला नहीं जागता
गलियों में समवेत स्वर में रोते बूढ़े कुत्तों को अब कोई नहीं टोकता
जमीन पर झड़े हरसिंगार के फूलों पर ओस की मासूम बूंदों के बीच
पैदा हुए बचपन के वे ख्याल
अब दफ्न हो रहे हैं कहीं
पीपल के पेड़ के नीचे से हर रास्ता अब उस तरफ जाता है
जहाँ एक कौंध उठती है
कि ‘इंसानों को मरने के बहाने चाहिए’!
सुमित सिंह
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