...सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना....
-अवतार सिंह संधू उर्फ़ पाश

Wednesday, January 2, 2008

रात का उत्सव

साल बदला
बदली तारीख
दीवारों पर टंगे कैलेंडरों पर टंके
अंक बदले
पर नहीं बदली जिंदगी

सारी रात जागते
थिरकते-बहकते हुए
साल तुम्हें विदा!

2008 की दस्तक! एक चमकीली भोर
साल की पहली सुबह!तुमने उत्सव नहीं मनाया पर
तुम्हारे आंगन में चिड़ियों की चहचाहट यूं ही थी

साल की पहली सुबह
एक दस्तावेज है
शहर-महानगरों के शोर का
भागते-लटकते लोगों का
अगली शाम की रोटी के जुगाड़ में
सुबह से देर शाम
खुरदरी खाल वाले हाथों का या
उन बेघरों का
जिन्होंने सर्दियों से ठिठुरते हुए सारी रात जागकर गुजार दी।
उनका भी
जिन्होंने कभी नहीं कहा,‘झूठा है तुम्हारा उत्सव’।

आसमां उत्सव नहीं मनाता आज भी उसका रंग नीला है
नहीं मनाती नदियां उत्सव
आज भी लरजती है
अब भी मचलती है
पहाड़ नहीं मनाते उत्सव
हमेशा की तरह आज भी
हमारे कारनामों के गवाह हैं।

तो जानिए कैलेंडर की तारीख बदलने से बहुत कुछ नहीं बदल जाता!!

बहरहाल...
आइए मिलकर कामना करें
सभी को मिले उजाले की खुशबू
नदियों की मस्ती
पहाड़ों के हौसले
और मिले अपना-अपना आसमां।
सुमित सिंह

6 comments:

Ashish Maharishi said...

सुमित जब ब्‍लॉग की इस छोटी सी दुनिया में आ गया है तो बस बने रहने का प्रयास करना, खैर कविता सार्थकता से भरी है

Unknown said...

स्वागत - आसमान के पहले बादल का - मनीष

उन्मुक्त said...

हिन्दी चिट्ठजगत में स्वागत है।

चलते चलते said...

स्‍वागत है सुमित

Sanjeet Tripathi said...

नए साल की शुभकामनाओं के साथ स्वागत है आपका बंधु!

ghughutibasuti said...

नववर्ष की शुभकामनाओं के साथ आपका स्वागत है ।
घुघूती बासूती