
एक ख़ामोशी जो हमारे बीच कई-कई दिनों तक तन जाती है
एक अनकही बात जिसे तुम कहते-कहते रुक जाती हो
एक टीसभरा लम्हा जो तुम्हें रोज-रोज निचोड़ जाता है
दिल पर पड़ा एक खरोंच जब ताजमहल बुन जाता है
...तुम्हारे लौट आने की उम्मीद के सहारे मैं एक सैलाब से बचकर निकल आता हूं
मगर कब तक बचता रहूंगा?
एक बेचैनी सी बनी रहती है कि इस रात के बाद शायद उजाला न दिखे
पल-पल सूखते वक्त के साये में इक दिन शायद सब कुछ चुक जाए
एक किस्सा है...शायद अधूरा रह जाए...।
-सुमित सिंह,पटना
3 comments:
bahut hi gahan vedna.
यार पहली बार पहुंचा आपके ब्लॉग पर। आपकी तो दुनिया ही ग़ज़ब की है। गुलिस्तां है ये तो। गुड।
sumit ji bahut bahut shukriya mere blog tak aane k liye..jiske maadhyam se me aap k blog tak pahuch kar apko padh payi...aapka ye lekhan bahut kuchh keh gaya...bahut kuchh sochne par mazboor kar gaya...aapki ye baate padh kar mujhe Amrita Pritam ji ki ek abhivyakti yaad aa gayi...
"घोर नैराश्य इतना दुखदायी नही होता..जितना हम समझते है. उसमे एक रसहीन शांति होती है. जब सुख की आशा खतम हो जाती है तो दुख का कष्ट भी नही रहता."
aur adhik abivyaktiya padhne k liye aap mera sb-blog http://anamka.blogspot.com/
dekh sakte hai.
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