
कॉमन गेम के नाम पर दिल्ली में जो लूट-ख़सोट मची है, उससे तो इस देश के लोगों का मन क्षुब्ध है ही, पिछले दिनों टीवी पर आ रही एक न्यूज़ ने लोगों को और भी दहला दिया। घटना थी पश्चिम बंगाल के किसी स्थान की, जहां एक लड़की को उसके समाज के लोगों ने पूरी तरह से निर्वस्त्र कर कई घंटों तक घुमाया और उस दौरान उसके साथ जी भर कर बदतमीजी की गई। उसका दोष बस इतना था कि उसने समाज के ख़िलाफ जाकर एक लड़के से प्रेम किया था, वह उसके साथ रहना चाहती थी।
यह घटना इसलिए असहज कर देने वाली थी कि देश चंद रोज के बाद आने वाली अपनी 63वीं वर्षगांठ मनाने की तैयारी में जुटा है, और वहां एक लड़की अपने ही समाज में खुलेआम बेआबरू की जा रही है। वह भागी जा रही है और लोग उसपर सीटियां बजा कर मजे लूट ले रहे हैं। टीवी पर आती उस लड़की के वीडियो-दृश्य जेहन में इतने गहरे बैठ जाते हैं कि रात में सोते हुए नींद में बार-बार एक नंगा डरा हुआ भीत-सा साया दिखाई पड़ता है, लोग उसकी ओर किलकारियां बजाते हुए दौड़ते हैं और वह साया गिरता-पड़ता बदहवास-सा भागा चला जा रहा है। एक कौंध सी उठती है कि दरअसल देश की आज़ादी को नंगा कर, उसे नोचने-खसोटने का इससे बेहतर मेटाफर दूसरा नहीं हो सकता।
ख़तरनाक बात यह है कि ऐसी घटनाएं विकृत दिमाग वाले किसी एक व्यक्ति की करतूत नहीं, बल्कि उनके पीछे रहता है पूरा का पूरा गिरोह, एक भीड़, एक संगठन। क्या यह हद से ज्यादा आज़ाद होने का मसला नहीं है? क्या यह हर स्तर पर हमारे अराजक हो जाने का मुद्दा नहीं है? और यदि सचमुच ऐसा ही है तो यकीन जानिए यह किसी गुलामी से कहीं ज्यादा खतरनाक है। आज़ादी, लिबर्टी, स्वतंत्रता इंसान का मौलिक अधिकार है। पर किसी आज़ाद व्यवस्था की अराजकता उस समाज के लिए उतनी ही जानलेवा हो सकती है, जितना कि बिजली बनाने के लिए जेनरेट किए जाने वाले न्यूल्कियर पॉवर से एटम बम बना लिया जाना।
सोचने वाली बात यह कि सैकड़ों सालों की ग़ुलामी के बाद अगर हमने बड़ी कीमत चुकाकर अपनी आज़ादी हासिल की, तो क्या उसका इस्तेमाल कुछ यूं करने के लिए। शुरुआत करने के लिए यह घटना एक मिसाल भर है, वर्ना अपनी आज़ादी का हम कितना सदुपयोग कर रहे हैं, इसके लिए दिमाग पर ज्यादा जोर डालने की जरूरत नहीं या न ही किसी बहस या विमर्श में पड़ने की। बल्कि जरूरत है उन तत्वों को पहचानने की, जिनकी वजह से आज भी हम बुनियादी जरूरतों से निपटने की मशक्कत में ही लगे हैं, पर कुछ उल्लेखनीय नहीं कर पाते। क्यों? क्योंकि हमारी नियत साफ नहीं है। हममें से अधिकतर मौके की फ़िराक में है, कुछ अनैतिक कर जाने के, किसी के हक-हिस्से को मारने के। तभी तो गलत दिखती किसी चीज़ से अब हम आहत नहीं होते, हम उसे सुधारने के लिए, उसे उखाड़ने के लिए सड़कों पर नहीं उतरते। मन में एक चोर बैठा रहता है- दूसरे को नंगा करने चले हैं, कहीं खुद ही नंगा होना पड़ जाए तो?
बेशक इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि इन लंबे दशकों में हमने बहुत तरक्की की। सुपर-कम्यूटर निर्मित करने से लेकर, मून मिशन, सूचना-संचार क्रांति, सुपर-हाइवे, मैट्रो परिवहन, कृषि की उच्च उत्पादकता, दुग्ध क्रांति, साइंस-तकनीकी क्षेत्र की शानदार कामयाबी और दुनिया भर से मिलने वाली शाबाशी। पर क्या इन सभी का लाभ देश के हरेक नागरिक को मिल रहा है? आंकड़े तो आज भी यही बता रहे हैं कि देश के 40 करोड़ आबादी को मुश्किल से एक शाम की रोटी मिल पाती है। उनके बच्चे दूध और पोषण की कमी से दम तोड़ देते हैं। हजारों गांव आज भी बिजली के बिना अंधेरों में सांस ले रहे हैं। उनके पास अस्पताल, स्कूल की व्यवस्था नहीं। और शर्म की वाली बात यह है कि ये सारी ख़ामियां हमारी तरक्की के एक-दो-दस वर्षों के बाद नहीं, बल्कि पूरे 63 सालों बाद भी जमी पड़ी हैं।
एक सरकार आती है, एक योजना पेश करती है; दूसरी आती है, उसका नाम हटाती है, उसकी व्यवस्था बदलती है और नई योजना के नाम पर, जोरदार विज्ञापनों के साथ उसे पेश कर डालती है। उस योजना से देश का कितना भला हो रहा है, इससे किसी को कोई भी मतलब नहीं, हमें भी नहीं। उनके लिए मायने रखती हैं सत्ता और शक्ति, हमारे लिए हमारी सुविधाएं, सहूलियत। हमारे पैसों से नेता-मंत्री ऐय्याशी करते हैं, और हमारे पास सस्ते शुल्कों वाला बेहतर सुविधाओं से लैस अस्पताल, स्कूल, चमचमाती सड़कें नहीं होतीं। फिर भी हम बार-बार उन्हें ही संसद में भेजने के लिए विवश हैं। जाहिर है जो कुछ हो रहा है हमारे शह पर हो रहा है। हमारी मौन सहमति से ही इतनी बड़ी-बड़ी गलतियां हुई जा रही हैं। क्योंकि टेलीविजन पर आने वाले न्यूज से हम अपना मनोरंजन करते हैं, विज्ञापनों को गंभीरता से लेते हैं और अगले दिन कुछ और पैसे बनाने की योजना बनाकर सो जाते हैं।
प्रांतियता-क्षेत्रियता, भाषा, जातियता के नाम पर और धर्म-संप्रदाय की आड़ में सत्ता की रोटियां सेंकने वाले हुजूम बनाकर संसद में घुसने को तैयार बैठे हैं और हम हैं कि आज़ादी की सालगिरह के नाम पर बच्चे को नए यूनिफॉर्म पहनाकर स्कूल भेजने, अपने ऑफिस-दफ्तरों, गली-मोहल्लों में तिरंगे फहराकर, मुंह मीठा कर, दशकों से घिसते आ रहे देशभक्ति के गानों को गुनगुनाते हुए घर लौट आने के सिवा और कुछ नहीं कर पाते।
समय अब 63 वर्ष पूर्व मिली आज़ादी के जश्न मनाने का नहीं, बल्कि एक दूसरी आज़ादी पाने के लिए एकजुट होने का है। यह लड़ाई होगी अपने ही बीच बैठे मौका-परस्तों, सत्ता-लोलुपों से निजात पाने की। ‘दूसरी आज़ादी’ का यह प्रयास हमारी अपनी संदिग्धता, विचार हीनता, चरित्रहीनता, अनुशासनहीनता पर चिंतन कर उनपर अंकुश रखने का एक आग्रह भी होगा।