मचलती बारिश की ठंडी छुअन
इंसानों के मुर्झाए एहसास ... दिलों की सूखती नमी फिर लौट आई हो जैसे
जैसे मेरा शहर एक बार फिर झील बन गया हो
मुम्बई के सख्त चेहरे पर और भी बहुत कुछ टांक जाती हैं बरसात...
सूखती पपड़ियों वाले सहयाद्री के पहाड़ों पर उग आई है हरियाली
उनके सीने पर झुक आए बादलों की सिसकी
अतृप्त प्रेमियों के मिलन का अनंत सुख है
पहाड़ों की बस्ती में आज मनाया जा रहा है उत्सव
शहर की हवा भी आज खुली-खुली सी है
वह हैरान है कि
बारिश में वक्ष खोल कर भींगने की
किसी स्त्री की मासूम-सी चाहत पर
उसका शहर शक क्यों करता है
आज मैंग़्रोव के जंगलों के बीच से गुजरते हुए
एक पल थमकर
पागलपन की सच्चाई देखना चाहती है
मैं भी चाहता हूं बहुत कुछ इस बारिश में
खोलूं एक-एक कर अपने दिल की गांठों को
उतरूं इस शहर में
भींगूं जी भर कर जैसे बचपन में खुली छत पर
पिता के साथ बारिश में भींगने का उत्सव
उड़ूं बादलों पर
समा जाऊं गीली हवा के इस ढंडे आंचल में
जैसे मां के स्पर्श से पल भर में तकलीफों का भाप बन कर उड़ जाना
चाहता हूं खटखटाना अपना दरवाजा..
चाहता हूं अरसों बाद एक बार घर लौट आना।
-सुमित सिंह,मुम्बई
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