...सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना....
-अवतार सिंह संधू उर्फ़ पाश

Friday, November 7, 2008

मैंग्रोव के जंगल के पहले रोज ठिठक जाता है शहर



एक अंधे सुरंग में चल कर कुछ देर बाद बाहर निकल आती है
मुम्बई की लोकल ट्रेन
तब दिखाई पड़ता है दोनों तरफ
मैंग्रोव का जंगल
लहराता रहता है
रात के सूनेपन में...

नवम्बर की शुरुआत है
जंगल के ऊपर आकाश में चिपका चांद
सफेद बर्फ के टूटे हुए टुकड़े की तरह खिलखिलाता है

कोई ठहर जाता है हर रात जंगल के किनारे उगी पहाड़ी पर
उस क्षण के इंतजार में
जब ऊपर मंदिर पर टिमटिमाती बत्तियां बुझ जाए
और कोई उसके भारी कंधे पर पीछे से आकर हल्के से अपनी हथेली धर जाए

पहाड़ी की सीढियों पर उस नाटे आदमी के पसीने की लकीर अब भी रेंग रही है
दिन की चमकती धूप में
लंबी चढ़ाई पार कर वह नीचे से ऊपर पानी से भरे गैलन पहुंचा जाता है
सांझ ढले उतरते उसके कदमों की आहटों में सिक्कों की खनखनाहट
यहीं कहीं छूट गई है
...अब भी सुनाई दे रही है

क्या है रात की खामोशी?
चुप रहना या दिन भर की आवाजों को सिसकती हवा के साथ घोल कर धीमे-धीमे पीना? ?
रात का जादू शायद रात को भी पता नहीं... सिवा उसके जो बहुत कुछ सुना जाना चाहता है
वर्ना रात बस रात होती है...एक अंधेरे की चादर जिसे हम बचपन से काले रंग में देखते चले आते हैं

यह रात एक पहचानी सी रोशनी है
मैंग्रोव पर पसरी हुई...
यहाँ आकर शहर हांफता-हांफता खत्म हो जाता है
एक सिरा खत्म और दूसरा शुरु होता है...

गहराती रात में मंदिर के घंटे की आवाज के बीच कोई अब भी बैठा है
इंतजार में...।

सुमित सिंह

2 comments:

एस. बी. सिंह said...

बहुत सुंदर

Dr. Nazar Mahmood said...

khoobsurat nazm
goood effort
keep it up