एक झूठ को सदी के सबसे आसान सच में बदलने की कोशिश करती हैं
सिगरेट पीती हुई लड़कियाँ
…उंगलियों में हल्के से फंसाकर
धुँएं की एक सहमी लकीर बनाना चाहती हैं
ताकि वे बेबस किस्म की अपनी खूबसूरती को भाप बना कर उड़ा सकें
गर्मियों में गुलमोहर के पेड़ का इंतजार किसे नहीं होता...
फूलों के बोझ से लद आई डालियों और झीनी पत्तियों की छत से
चुप सा नीला आसमां भी तो दिखता है
बेहद सुंदर! पर सिगरेट पीती लड़कियों के लिए यह डर की बात है
इसलिए वे कतई गुलमोहर नहीं होना चाहतीं
तमाम किस्म की बासी और साजिश भरी खुशबुओं से बाहर निकलने का प्रयास भर है यह
नवजात शिशु के चारपाई से गिर जाने पर
पैदा हुए ‘धक-सा’ होने का एहसास अब वे नहीं पालना चाहतीं
त्रासद है कि रोते हुए शिशुओं की आवाज उनके दिलों में आगे भी सुनाई पड़ेगी
पर वे उसका भान तक नहीं होने देंगी
हाँ यह सच है!
लड़कियाँ ओठों पर शैतानी खूबसूरती बिखेरना चाहती हैं अपने अंदर गहरे छुपे डर को
पिघलाने के लिए
सदियों पुरानी देह की महक को धुएँ में झुठलाने के लिए...
लड़कियाँ अब ‘माँ’ भी नहीं होना चाहतीं
जिनकी आँखों में भय के तैरते पुराने चौखटे उन्हें काट खाने को दौड़ते हैं
मल्टीप्लेक्स होती लड़कियाँ अब घर लौटने की जरूरत नहीं पालतीं।
सुमित सिंह
...सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना....
-अवतार सिंह संधू उर्फ़ ‘पाश’
तड़प का न होना सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना....
-अवतार सिंह संधू उर्फ़ ‘पाश’
Tuesday, November 25, 2008
Friday, November 7, 2008
मैंग्रोव के जंगल के पहले रोज ठिठक जाता है शहर

एक अंधे सुरंग में चल कर कुछ देर बाद बाहर निकल आती है
मुम्बई की लोकल ट्रेन
तब दिखाई पड़ता है दोनों तरफ
मैंग्रोव का जंगल
लहराता रहता है
रात के सूनेपन में...
नवम्बर की शुरुआत है
जंगल के ऊपर आकाश में चिपका चांद
सफेद बर्फ के टूटे हुए टुकड़े की तरह खिलखिलाता है
कोई ठहर जाता है हर रात जंगल के किनारे उगी पहाड़ी पर
उस क्षण के इंतजार में
जब ऊपर मंदिर पर टिमटिमाती बत्तियां बुझ जाए
और कोई उसके भारी कंधे पर पीछे से आकर हल्के से अपनी हथेली धर जाए
पहाड़ी की सीढियों पर उस नाटे आदमी के पसीने की लकीर अब भी रेंग रही है
दिन की चमकती धूप में
लंबी चढ़ाई पार कर वह नीचे से ऊपर पानी से भरे गैलन पहुंचा जाता है
सांझ ढले उतरते उसके कदमों की आहटों में सिक्कों की खनखनाहट
यहीं कहीं छूट गई है
...अब भी सुनाई दे रही है
क्या है रात की खामोशी?
चुप रहना या दिन भर की आवाजों को सिसकती हवा के साथ घोल कर धीमे-धीमे पीना? ?
रात का जादू शायद रात को भी पता नहीं... सिवा उसके जो बहुत कुछ सुना जाना चाहता है
वर्ना रात बस रात होती है...एक अंधेरे की चादर जिसे हम बचपन से काले रंग में देखते चले आते हैं
यह रात एक पहचानी सी रोशनी है
मैंग्रोव पर पसरी हुई...
यहाँ आकर शहर हांफता-हांफता खत्म हो जाता है
एक सिरा खत्म और दूसरा शुरु होता है...
गहराती रात में मंदिर के घंटे की आवाज के बीच कोई अब भी बैठा है
इंतजार में...।
सुमित सिंह
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