...सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना....
-अवतार सिंह संधू उर्फ़ पाश

Wednesday, December 23, 2009

आओ सपने बिकते हैं यहां

इधर दो दिनों से देश के मीडिया और प्रबुद्ध तबकों द्वारा इस बात को लेकर हाय-तौबा मचाई जा रही है कि सीबीआई की अदालत द्वारा हरियाणा के पूर्व डीजीपी एस.पी.एस राठौड़ को सिर्फ 6 महीने की सजा सुनाई गई है। यह शख्स एक गंभीर अपराध का कुसूरवार है...इसलिए इसे सख्त से सख्त सजा होनी चाहिए।

राठौड़ पर वर्ष 1990 में एक किशोरी टेनिस खिलाड़ी रुचिका गिरहोत्रा के साथ यौन शोषण का जघन्य आरोप है। न्याय की गुहार के लिए अदालती चक्कर लगाने के बाद जब रुचिका को लगा कि अब दोषी को सजा नहीं मिल पाएगी तो उसने 3 साल बाद आत्महत्या कर ली।

इस बीच राठौड़ तमाम हथकंडों के जरिए रुचिका के परिवार वालों पर दबाव बनाता रहा। रुचिका के भाई पर चोरी का आरोप लगाकर बुरी तरह से पीटा गया और परिवार के सदस्यों को तरह-तरह से तंग किया गया।

यह सब तब हुआ था जब राठौड़, डीजीपी यानि पूरे हरियाणा राज्य के पुलिस बल का महानिदेशक हुआ करता है। यह मामला सीबीआई अदालत को सौंपा गया था और आज 19 सालों के बाद इसका आधा-अधूरा सा नतीजा आपके सामने है। राठौड़ को 6 महीने की सजा और साथ में तत्काल जमानत की सुविधा...जिससे वह उच्च न्यायालय में कानून के साथ अगले दौर की कबड्डी खेल सके।

अदालत की दलील यह है कि उसके पास पर्याप्त सुबूत नहीं। इस वक्तव्य पर एक पल के लिए तो भरोसा नहीं होता (कसाब के मामले पर पाकिस्तान के अविश्वासपूर्ण रवैये की तरह) पर अगर बात एक डीजीपी की सामर्थ्य-शक्ति और फुलप्रूफ तिकड़मों-प्रपंचों की बात जेहन में आती है तो आखिरकार स्वीकार कर लेने को दिल करता है।

पर मामला खत्म नहीं हुआ...असली बात यहीं से शुरु होती है.. असली चिंता यहीं से पनपती है...जनता की अदालत में...हमारे-आपके जेहन में। ‘क्या सीबीआई जैसी जांच एजेंसी इतनी अक्षम हो चुकी है कि पूरे 19 सालों के बाद भी उसके पास इस अभियुक्त के ख़िलाफ इतना पुख्ता सबूत नहीं मिल पाया कि इसे कड़ी सजा सुनाई जा सके।' अगर सच यही है तो प्रश्न यह भी उठता है कि बड़ी-बड़ी दूकानदारी के नाम पर देश में आज हो क्या रहा है? एक शख्स जो आम इंसान है, हालात का मारा है, महज इसलिए उसे आसानी से मुजरिम करार दिया जा सकता है.. पर सिस्टम को अपने पंजों में लेकर सैर करने वाले राठौड़ों जैसे तमाम गिद्धों पर निशाना साधने की कूवत किसी में नहीं? तो फिर क्यों न हम ‘भारत के लोग’ मिलकर सीबीआई, सरकार और मानवता के प्रति इस गैर-जिम्मेदार, रीढ़-विहीन व्यवस्था को अक्षम और मुर्दा करार दें और इससे छुटकारा पाने और एक नया सिस्टम बनाने के लिए आजादी के नए आंदोलन की तरफ पांव क्यों न बढ़ाएं?

कइयों को तो यह भी लग सकता है कि राठौड़ मामले पर हाय-तौबा मचाना अदालत का अवमानना है... तो इसपर मैं कहूंगा ‘हां है’। देश के उस भौड़े कानून और हिजड़ी न्यायिक व्यवस्था पर ‘थू’ जिसमें कसाब जैसे आतंकवादी के साथ 1 साल से अदालत में आंख-मिचौली का खेल खेला जा रहा है और देश का कीमती वक्त और करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाए जा रहे हैं। सैकड़ों लोगों की जान लेने वाले, देश की गरिमा को मिट्टी में मिलाने वाले इस अपराधी पर बिना टिकट रेलवे प्लेटफॉर्म पर प्रवेश करने की धारा लगाई जा रही है, तो सैकड़ों लोगों को अदालत में बुलाकर, कठघरे में खड़े कसाब की तरफ उंगली उठाकर पूछा जा रहा है, ‘क्या यही है वह अपराधी जिसे आपने 26/11 की रात मुम्बई की सड़कों पर गोलियां चलाते देखा था?’ हमारी व्यवस्था ऐसी क्यों कि एक अपराधी को सजा सुनाने से अहम उस न्यायिक प्रक्रिया को संपन्न करना होता है जो कानून की किताबों में लिखी गई होती है।

अमेरिका का मूल संविधान तो महज 4 पृष्ठों का है पर उन्हीं निर्देशों से वह अपने देश में तो एक बेमिसाल विधि-व्यवस्था कायम करता ही है, साथ ही दुनिया के हर कोने में जाकर अपना असरदार दखल कायम कर आता है। क्या वजह है कि भारत के एक विशाल संविधान के जरिए भी देश में हम एक फुलफ्रूफ व्यवस्था कायम नहीं कर सकते? वजह, हमारी नीयत में खोट है। और यह खोट भारत के हर उस इंसान की है, जिससे हमारी सरकार और व्यवस्था खड़ी होती है। इसलिए सब कुछ देखकर घाघों की तरह आसानी से झेल जाने वाले हमारे इस मुर्देपन पर भी उतना ही ‘थू’...।


... दुनिया खूबसूरत बनाने का एक सपना यह भी

मुम्बई की ज़िंदगी बड़ी नपी-तुली होती है। नियत समय पर जगना...नियत समय पर ऑफिस–दफ्तर, फैक्ट्रियों-व्यवसायों के लिए घर से निकलना... नियत समय पर स्टेशन पहुंचना...नियत समय पर लोकल ट्रेन पर लटक-फटक कर सवार होना, काम पर पहुंचना और नियत समय पर फिर घर वापस आना... नियत समय के लिए टीवी कार्यक्रम देखना और सो जाना। इस शहर में सब कुछ अपने कायदे से होता है...आपकी दख़लअंदाजी बर्दाश्त नहीं की जा सकती। चलती ट्रेन में सवार होने में यदि आपको चंद सेकंड की भी देरी हुई तो पीछे वाले सहयात्री ही आपपर फिकरे कस कर आपको उतार बाहर करेंगे। आप छूटती ट्रेन को देखते रह जाएंगे।

...कल मैं मुद्दतों बाद मुम्बई के करी रोड स्टेशन पर उतरा। मेरी नजर अचानक ही जूते पॉलिश करने वाले उस बूढ़े की तरफ चली गई, जहां मैं रोज उतरकर जूते पॉलिश करवाया करता था।

जब मैं ज़ूम टीवी में कार्यरत था तो इस स्टेशन पर मैं डेढ़ सालों तक नियत समय पर चढ़ता-उतरता रहा था...इसलिए इससे एक अनकहा-सा लगाव हो गया है। स्टेशन पर चहल-कदमी करता जरूरत से ज्यादा लंबा वह टीटीई, डेयरी स्टॉल के भीतर खड़े लंबे कुर्ते वाले वही सज्जन, प्लेटफॉर्म पर झाड़ू लगाते वही सफाई कर्मचारी...। पर जूते पॉलिश करने वाले उस मेहनतकश बुज़ुर्ग का चेहरा कल नज़र नहीं आया। मुझे लगा मेरा कुछ छूट रहा है...मन उदास हो उठा। मैंने पास के एक जूते पॉलिश करने वाले के सामने अपने जूते उतारते हुए, उस बुज़ुर्ग के बारे में पूछा तो जवाब मिला कि वह इन दिनों गांव चले गए हैं...उनका बेटा बीमार था।

यह सुनकर मुझे राहत मिली। मेरे जेहन में एक जोड़ी आंखों में तैरते जिंदा सपनों की वह अनोखी चमक तैरने लगी।
हर रोज की तरह तरह उस दिन भी मैंने अपने जूते उनसे पॉलिश करवाए और पैसे चुकाने के लिए अपना वॉलेट निकाला था। पर वॉलेट में छुट्टे नदारत...सिर्फ सौ के नोट थे। मैंने हिचकिचाते हुए एक नोट उनकी तरफ बढ़ाया। उन्होंने एक बार लकड़ी की पेटी में निगाह दौड़ाया और अफ़सोस ज़ाहिर कर पास के एक नाश्ते के स्टॉल पर लगभग दौड़ते हुए जाकर छुट्टे करवा लाए। मुझे अपने किए पर झिझक महसूस हो रही थी। जैसे ही उन्होंने 95 रुपए वापस किए, तो मैंने कहा- ‘चाचा, माफ कीजिए, मैंने आपको परेशान कर दिया...।’
उन बुज़ुर्ग ने बेहद मासूम मुस्कराहट के साथ जवाब दिया ‘अरे नहीं बेटा, गलती तो मेरी भी थी...मेरे पास इतने छुट्टे क्यों नहीं थे कि मैं झटपट तुम्हें वापस कर सका... आखिर तुमने तो मुझे पैसे दिए ही।’ मैं उनका यह जवाब सुनकर सकते में था। मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया, ‘चाचा सब यदि आपके जैसा सोचने लगें तो यह दुनिया कितनी सुंदर हो जाएगी।’
उनकी जो अगली प्रतिक्रिया थी, वह और भी अनपेक्षित- ‘बेटा इस दुनिया को आखिर सुंदर तो हमें ही बनाना है।’

मुझे लगा जैसे मैं कोई किताब पढ़ रहा हूं या कोई दिलकश फ़िल्म देख रहा हूं। मेरा दिल किया मैं उस बुज़ुर्ग को चूम लूं और चीख-चीख कर कहूं, ‘आओ...आओ सस्ती कीमत में इनसे खूबसूरत, चमकीले सपने खरीदकर घर ले जाओ।'

कल उसी वक्त मेरे मन में एक कौंध सी उठी... दादर स्टेशन पर ‘मनसे’ के कार्यकर्ताओं ने सोए से उठाकर कई साधुओं और फ़कीरो को पिछ्ली रात जमकर लात-घूसों से पीटा...।
सुमित सिंह

No comments: