साल की पहली बारिश
में भींगने के बाद
भारी बादलों का धुआँ
झुक आया सहयाद्री की पहाड़ियों पर
पहाड़ियों की तरफ खुलती खिड़कियाँ...
सुबह से रात होने तक
एक टक निहारती...
प्रियतम के बदन से टकराकर आने वाली
खुशबुदार हवा के झोंकों के संग
झूमती
पानी के महीन छींटों से लिपटती
पहाड़ों की तरफ खुलती
जलाती हैं मुझे
कमरे के अंदर आने वाली
हवा की छुअन से पैदा हुई उत्तेजना!
बावजूद चुप रहता हूँ मैं उसके
शर्म आती है
खिड़की से कहने में
कि
मुझे भी 'वह' उतना ही प्यारा लगता है!
हवा जानती है सबकुछ
शायद पहाड़ियों को भी पता हो...।
सुमित सिंह
3 comments:
सुंदर लगी आपकी यह कविता
bahut khoobsurat......behatareen..
बहुत बढ़िया..बधाई.
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