अपना अपना आसमां
...सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना....
-अवतार सिंह संधू उर्फ़ ‘पाश’
तड़प का न होना सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना....
-अवतार सिंह संधू उर्फ़ ‘पाश’
Thursday, April 7, 2011
महात्मा ‘अन्ना’ के अनशन में हम भी साथ हैं!!
यह किसी एक व्यक्ति या किसी एक समुदाय से छुटकारा पाने का प्रयास नहीं, बल्कि इंसान के नैतिकता बोध के मर जाने के ख़िलाफ एक आंदोलन है। समाजिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार के बहते गंदे पानी की सफाई का यह एक जुनूनी और ईमानदार प्रयास है।
किसन बापट बाबूराव हजारे उर्फ अन्ना हजारे जैसे प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता ने इस आंदोलन का बीड़ा उठाया है। वे गत 5 अप्रैल को दिल्ली के जंतर-मंतर पर आमरण अनशन पर बैठ चुके हैं। उनके इस प्रयास के समर्थन में पूरे देश में हजारों जिम्मेदार लोगों ने अपने-अपने स्थानों पर अनशन करना शुरु कर दिया है। मेधा पाटेकर, किरण बेदी समेत देश के कई सामाजिक कार्यकर्ता उनके इस पवित्र प्रयास में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं। योगगुरु श्री रामदेव, सामाजिक कार्यकर्ता श्री अग्निवेश जैसी हस्तियों का उन्हें खुला समर्थन मिल रहा है।
बॉलीवुड के संजीदा और जिम्मेदार अभिनेता आमिर खान ने भी प्रधान मंत्री को पत्र लिखकर ‘अन्ना’ के लिए अपना समर्थन दिखाया है। जाने-माने निर्देशक शेखर कपूर, समाज की विसंगतियों को पर्दे पर उभारने वाले फिल्मकार मधुर भंडारकर जैसी हस्तियों ने भी ‘अन्ना’ के समर्थन में अपनी आवाज बुलंद की है। मुम्बई में तो आलम यह है कि हजारों नागरिकों के अन्ना के समर्थन में उतरने के साथ ही झुग्गियों में रहने वाले लोग भी सड़कर पर उतरकर ‘अन्ना’ के पक्ष में अपनी अवाज मजबूत कर रहे हैं। देश के दूसरे शहरों का भी कुछ यही हाल है। बेंगलूरु, चेन्नई, लखनऊ, पुणे, औरंगाबाद, नासिक जैसे शहरों में भी हजारों लोग अन्ना के इस ईमानदार प्रयास में अपना भरोसा जताने से पीछे नहीं हैं।
दरअसल यह सारी कवायद है ‘लोकपाल बिल’ को लेकर, यानि वह बिल जिसके पास हो जाने के बाद देश की ऑपरेटिंग मशीनरी से भ्रष्टाचार जैसी बड़ी समस्या पर नियंत्रण पाया जा सकता है। इस कानून द्वारा लोगों की मेहनत की कमाई को गलत जगहों में अवैध रूप से खर्च करने की बजाए उसे देश में शिक्षा, रोजगार, सड़क, बिजली, स्वास्थ्य सेवा, हमारे वंचितों-बेसहारे भाइयों-बहनों के लिए एक बेहतर और आसान ज़िंदगी मुहैय्या कराई जा सकती है। हमारे देश के लिए तरक्की और खुशिहाली का सफ़र कुछ और आसान हो जाएगा।
क्या है “लोकपाल बिल”
यह बिल पहले पहल वर्ष 1969 में पेश किया गया था। तब यह लोक सभा में तो पास हो गया था पर राज्य सभा की मंजूरी इसे नहीं मिल पाई। तब से लेकर आज तक यह बिल सरकारों की बदनियती का शिकार होता संसद में यहां से वहां डोलता रहा। बाद के वर्षों में इस बिल में कई सारे सुधार और फरबदल कर वर्ष 1971 से लेकर 2008 में संसद में 9 बार पेश करने का प्रयास किया गया, पर इसे कभी मंजूरी नहीं मिल पाई।
इस बिल के पास हो जाने के बाद देश के सभी राज्यों में ‘लोकायुक्त’ और केंद्र में ‘लोकपाल’ नाम के एंटी करप्शन ऑथॉरिटी की नियुक्ति की जाएगी, जो देश की राजनीति तथा ब्युरोक्रेसी में जड़ जमाए अनैतिकता और भ्रष्टाचार पर कड़े कदम उठाएंगे। इस कानून से प्रधान मंत्री समेत अन्य मंत्रियों और सासंदों को किसी प्रकार के करप्शन के आरोप पर दबोचा जा सकता है। अच्छी बात यह कि लोकपाल को उन मामलों पर 6 महीने के भीतर अपनी जांच पूरी करनी होगी। जाहिर है इससे भ्रष्टाचार के खिलाफ मामलों को जल्द से जल्द निपटाया जा सकता है और दोषियों को समय पर उचित सजा दी जा सकेगी।
बिल पास होने में क्या अड़चने हैं?
मौजूदा सरकार ने इस बिल का जो ड्राफ्ट तैयार किया है, वह पूरी तरह से निष्पक्ष नहीं है। यानि हम संक्षिप्त में यह कह सकते हैं कि इसमें देश के बड़े नेताओं या ब्युरोक्रेट्स को करप्शन के आरोपों से बचाने की गुंजाइश रखी गई है। कॉग्रेस सरकार द्वारा बनाए इस बिल के मौजूदा प्रारूप में प्रधानमंत्री को इससे बाहर रखने की बात की गई है। अन्ना हजारे और उन जैसे सामाजिक कार्यकर्ता चाहते हैं कि यह बिल देश की अन्य स्वायत्त संस्था की तरह ही सरकारी दबाव से पूरी तरह से अगल रखा जाए, अन्यतथा यह हाथी का दांत बनकर रह जाएगा। यही है ‘अन्ना’ का विरोध।
अन्ना के सामाजिक जीवन पर एक नज़र
अन्ना का जन्म 15 जनवरी 1940 को महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के भिनगरी गांव में हुआ। माता-पिता मजदूर परिवार से थे...इसलिए ज़िंदगी की सच्चाइयों और कठिनाइयों को समझने में इन्हें ज्यादा वक्त नहीं लगा। आर्थिक अभाव की वजह से कक्षा पांच से आगे की पढ़ाई नहीं कर पाए पर देश की व्यवस्था में व्याप्त गंदगियों का अच्छा अध्ययन कर लिया। स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी और आचार्य विनोभा भावे के दर्शन का उनके जीवन पर गहरा असर पड़ा।
भारतीय सेना में ड्राइवर की नौकरी पाई। वर्ष 1975 में जब नौकरी से स्वैच्छिक अवकाश लेकर अपने पारिवारिक गांव रालेगन सिद्धी लौटे तो गांव में लोगों की शराबखोरी और गांव की बदहाली से काफी आहत हुए। लोगों को सुधारने के बहुत जतन किए...गांव में पानी की कमी थी...लोगों का जीवन कठिन था। अन्ना ने लोगों को समझाया...उनका सहयोग लिया और छोटी-छोटी नहरों द्वारा पास की पहाड़ी से पानी लाकर सींचाई की अच्छी व्यवस्था की...अब अच्छी फ़सलें उगने लगीं...लोगों के जीवन में खुशियां आने लगीं और रालेगन सिद्धी एक आदर्श गांव बन गया, जो देश के सामने एक मिसाल था। इस प्रतिबद्ध और ईमानदार प्रयास के लिए उन्हें 1992 में पद्म भूषण सम्मान से नवाजा गया।
आइए महात्मा अन्ना के इस पवित्र प्रयास में हम भी एक कदम आगे बढ़ाएं और यह संकल्प लें ‘न हम भ्रष्टाचार करेंगे न ही किसी को करने की इजाजत देंगे।’
-Sumit Singh, Mumbai.
Sunday, August 15, 2010
अराजक आज़ादी का जश्न क्यों?
कॉमन गेम के नाम पर दिल्ली में जो लूट-ख़सोट मची है, उससे तो इस देश के लोगों का मन क्षुब्ध है ही, पिछले दिनों टीवी पर आ रही एक न्यूज़ ने लोगों को और भी दहला दिया। घटना थी पश्चिम बंगाल के किसी स्थान की, जहां एक लड़की को उसके समाज के लोगों ने पूरी तरह से निर्वस्त्र कर कई घंटों तक घुमाया और उस दौरान उसके साथ जी भर कर बदतमीजी की गई। उसका दोष बस इतना था कि उसने समाज के ख़िलाफ जाकर एक लड़के से प्रेम किया था, वह उसके साथ रहना चाहती थी।
यह घटना इसलिए असहज कर देने वाली थी कि देश चंद रोज के बाद आने वाली अपनी 63वीं वर्षगांठ मनाने की तैयारी में जुटा है, और वहां एक लड़की अपने ही समाज में खुलेआम बेआबरू की जा रही है। वह भागी जा रही है और लोग उसपर सीटियां बजा कर मजे लूट ले रहे हैं। टीवी पर आती उस लड़की के वीडियो-दृश्य जेहन में इतने गहरे बैठ जाते हैं कि रात में सोते हुए नींद में बार-बार एक नंगा डरा हुआ भीत-सा साया दिखाई पड़ता है, लोग उसकी ओर किलकारियां बजाते हुए दौड़ते हैं और वह साया गिरता-पड़ता बदहवास-सा भागा चला जा रहा है। एक कौंध सी उठती है कि दरअसल देश की आज़ादी को नंगा कर, उसे नोचने-खसोटने का इससे बेहतर मेटाफर दूसरा नहीं हो सकता।
ख़तरनाक बात यह है कि ऐसी घटनाएं विकृत दिमाग वाले किसी एक व्यक्ति की करतूत नहीं, बल्कि उनके पीछे रहता है पूरा का पूरा गिरोह, एक भीड़, एक संगठन। क्या यह हद से ज्यादा आज़ाद होने का मसला नहीं है? क्या यह हर स्तर पर हमारे अराजक हो जाने का मुद्दा नहीं है? और यदि सचमुच ऐसा ही है तो यकीन जानिए यह किसी गुलामी से कहीं ज्यादा खतरनाक है। आज़ादी, लिबर्टी, स्वतंत्रता इंसान का मौलिक अधिकार है। पर किसी आज़ाद व्यवस्था की अराजकता उस समाज के लिए उतनी ही जानलेवा हो सकती है, जितना कि बिजली बनाने के लिए जेनरेट किए जाने वाले न्यूल्कियर पॉवर से एटम बम बना लिया जाना।
सोचने वाली बात यह कि सैकड़ों सालों की ग़ुलामी के बाद अगर हमने बड़ी कीमत चुकाकर अपनी आज़ादी हासिल की, तो क्या उसका इस्तेमाल कुछ यूं करने के लिए। शुरुआत करने के लिए यह घटना एक मिसाल भर है, वर्ना अपनी आज़ादी का हम कितना सदुपयोग कर रहे हैं, इसके लिए दिमाग पर ज्यादा जोर डालने की जरूरत नहीं या न ही किसी बहस या विमर्श में पड़ने की। बल्कि जरूरत है उन तत्वों को पहचानने की, जिनकी वजह से आज भी हम बुनियादी जरूरतों से निपटने की मशक्कत में ही लगे हैं, पर कुछ उल्लेखनीय नहीं कर पाते। क्यों? क्योंकि हमारी नियत साफ नहीं है। हममें से अधिकतर मौके की फ़िराक में है, कुछ अनैतिक कर जाने के, किसी के हक-हिस्से को मारने के। तभी तो गलत दिखती किसी चीज़ से अब हम आहत नहीं होते, हम उसे सुधारने के लिए, उसे उखाड़ने के लिए सड़कों पर नहीं उतरते। मन में एक चोर बैठा रहता है- दूसरे को नंगा करने चले हैं, कहीं खुद ही नंगा होना पड़ जाए तो?
बेशक इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि इन लंबे दशकों में हमने बहुत तरक्की की। सुपर-कम्यूटर निर्मित करने से लेकर, मून मिशन, सूचना-संचार क्रांति, सुपर-हाइवे, मैट्रो परिवहन, कृषि की उच्च उत्पादकता, दुग्ध क्रांति, साइंस-तकनीकी क्षेत्र की शानदार कामयाबी और दुनिया भर से मिलने वाली शाबाशी। पर क्या इन सभी का लाभ देश के हरेक नागरिक को मिल रहा है? आंकड़े तो आज भी यही बता रहे हैं कि देश के 40 करोड़ आबादी को मुश्किल से एक शाम की रोटी मिल पाती है। उनके बच्चे दूध और पोषण की कमी से दम तोड़ देते हैं। हजारों गांव आज भी बिजली के बिना अंधेरों में सांस ले रहे हैं। उनके पास अस्पताल, स्कूल की व्यवस्था नहीं। और शर्म की वाली बात यह है कि ये सारी ख़ामियां हमारी तरक्की के एक-दो-दस वर्षों के बाद नहीं, बल्कि पूरे 63 सालों बाद भी जमी पड़ी हैं।
एक सरकार आती है, एक योजना पेश करती है; दूसरी आती है, उसका नाम हटाती है, उसकी व्यवस्था बदलती है और नई योजना के नाम पर, जोरदार विज्ञापनों के साथ उसे पेश कर डालती है। उस योजना से देश का कितना भला हो रहा है, इससे किसी को कोई भी मतलब नहीं, हमें भी नहीं। उनके लिए मायने रखती हैं सत्ता और शक्ति, हमारे लिए हमारी सुविधाएं, सहूलियत। हमारे पैसों से नेता-मंत्री ऐय्याशी करते हैं, और हमारे पास सस्ते शुल्कों वाला बेहतर सुविधाओं से लैस अस्पताल, स्कूल, चमचमाती सड़कें नहीं होतीं। फिर भी हम बार-बार उन्हें ही संसद में भेजने के लिए विवश हैं। जाहिर है जो कुछ हो रहा है हमारे शह पर हो रहा है। हमारी मौन सहमति से ही इतनी बड़ी-बड़ी गलतियां हुई जा रही हैं। क्योंकि टेलीविजन पर आने वाले न्यूज से हम अपना मनोरंजन करते हैं, विज्ञापनों को गंभीरता से लेते हैं और अगले दिन कुछ और पैसे बनाने की योजना बनाकर सो जाते हैं।
प्रांतियता-क्षेत्रियता, भाषा, जातियता के नाम पर और धर्म-संप्रदाय की आड़ में सत्ता की रोटियां सेंकने वाले हुजूम बनाकर संसद में घुसने को तैयार बैठे हैं और हम हैं कि आज़ादी की सालगिरह के नाम पर बच्चे को नए यूनिफॉर्म पहनाकर स्कूल भेजने, अपने ऑफिस-दफ्तरों, गली-मोहल्लों में तिरंगे फहराकर, मुंह मीठा कर, दशकों से घिसते आ रहे देशभक्ति के गानों को गुनगुनाते हुए घर लौट आने के सिवा और कुछ नहीं कर पाते।
समय अब 63 वर्ष पूर्व मिली आज़ादी के जश्न मनाने का नहीं, बल्कि एक दूसरी आज़ादी पाने के लिए एकजुट होने का है। यह लड़ाई होगी अपने ही बीच बैठे मौका-परस्तों, सत्ता-लोलुपों से निजात पाने की। ‘दूसरी आज़ादी’ का यह प्रयास हमारी अपनी संदिग्धता, विचार हीनता, चरित्रहीनता, अनुशासनहीनता पर चिंतन कर उनपर अंकुश रखने का एक आग्रह भी होगा।
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Friday, June 18, 2010
आओ इन बादलों के संग एक बार घर लौट आएं
मचलती बारिश की ठंडी छुअन
इंसानों के मुर्झाए एहसास ... दिलों की सूखती नमी फिर लौट आई हो जैसे
जैसे मेरा शहर एक बार फिर झील बन गया हो
मुम्बई के सख्त चेहरे पर और भी बहुत कुछ टांक जाती हैं बरसात...
सूखती पपड़ियों वाले सहयाद्री के पहाड़ों पर उग आई है हरियाली
उनके सीने पर झुक आए बादलों की सिसकी
अतृप्त प्रेमियों के मिलन का अनंत सुख है
पहाड़ों की बस्ती में आज मनाया जा रहा है उत्सव
शहर की हवा भी आज खुली-खुली सी है
वह हैरान है कि
बारिश में वक्ष खोल कर भींगने की
किसी स्त्री की मासूम-सी चाहत पर
उसका शहर शक क्यों करता है
आज मैंग़्रोव के जंगलों के बीच से गुजरते हुए
एक पल थमकर
पागलपन की सच्चाई देखना चाहती है
मैं भी चाहता हूं बहुत कुछ इस बारिश में
खोलूं एक-एक कर अपने दिल की गांठों को
उतरूं इस शहर में
भींगूं जी भर कर जैसे बचपन में खुली छत पर
पिता के साथ बारिश में भींगने का उत्सव
उड़ूं बादलों पर
समा जाऊं गीली हवा के इस ढंडे आंचल में
जैसे मां के स्पर्श से पल भर में तकलीफों का भाप बन कर उड़ जाना
चाहता हूं खटखटाना अपना दरवाजा..
चाहता हूं अरसों बाद एक बार घर लौट आना।
-सुमित सिंह,मुम्बई
Thursday, June 3, 2010
उत्तर भारतीयों की लंपटता के सबब
पिछ्ले दिनों मुम्बई और महाराष्ट्र के अन्य हिस्सों में ‘उत्तर भारतीयता’ एक मुद्दे के रूप में उभरा। इस मुद्दे पर कुछ राजनैतिक गिरोहों को अपनी लंपटता और हिंसा प्रदर्शित करने का भरपूर मौका मिला तो बुद्धिजीवियों ने इस बहस को भांति-भांति से विस्तार दिया। यहां पेश है इसी मुद्दे पर युवा लेखक और विचारक सूरज प्रकाश सिंह की सीधी-सच्ची राय। चूंकि वे खुद उत्तर भारत से हैं और वहां के समाज और मनोदशा पर पैनी नज़र रखते हैं, इसलिए उनके ये विचार आपको सच्चाई से रूबरू कराते हैं...।
-सुमित सिंह
जो सोचते नहीं वे पढ़ते नहीं। उत्तर भारतीयों का बहुसंख्यक तबका विचारहीनता से ग्रस्त है। उनकी बात छोड़िए जिनकी सारी उम्र गरीबी झेलते और उससे लड़ते बीत जाती है, मेरा इशारा उनकी ओर है जो खाते-पीते लोग जनसंख्या के ऊपरी 5% वाली परत से आते हैं (जिनके बारे में अभी हाल में एक अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी का अध्ययन है, कि उनकी आय रोजाना 10 डॉलर यानि 15 हजार रू. मासिक से अधिक है)। इस तबके में (जाहिर है जिनके पास किताबें खरीदने और पढ़ने की सहूलियत है), कितने ऐसे घर आपको मिलेंगे जहां बैठकखाने में एक बुकशेल्फ हो ?
इसी उत्तर भारतीय क्षेत्र में भ्रष्टाचार, लंपटता, बेईमानी, झूठ और उद्दंडता की भरी-पूरी गंगा बहती है। उत्तर भारत के किसी गांव-शहर में रहने वाले आप एक विचारशील व्यक्ति हैं, लेकिन यदि आपका संपर्क भारत के अन्य हिस्सों से नहीं हुआ है तो शायद आप इस तथ्य को साफ-साफ नहीं समझ पाएंगे। जैसे ही आप यहां से बाहर निकलते हैं और नए लोगों के संपर्क में आते हैं आपको पहली ही बार में फर्क स्पष्ट महसूस होता है। भ्रष्टाचार और अनुशासनहीनता जिस तरह उत्तर भारतीय हिन्दी क्षेत्र की अपसंस्कृति का हिस्सा बन गई हैं, वह चरम की स्थिति है। ऐसा शायद और कहीं नहीं। आप ट्रेन में बैठकर उत्तर भारत से मध्य या दक्षिण भारत की यात्रा कर लें, ट्रेन के आपके सहयात्री या रास्ते के स्टेशनों पर चढ़ने-उतरने वाले लोगों, खासकर नौजवानों के बर्ताव से ही आप बहुत कुछ अनुभव कर लेंगे।
यह विचारहीनता की स्थिति उत्तर भारतीय हिन्दी क्षेत्र में इस कारण पैदा हुई, क्योंकि यहां समाज के अग्रणी वर्ग के लोगों ने समाज के शेष हिस्से के साथ उनकी मिहनत के फल को लूटकर खाने भर का अपना रिश्ता समझा। देश भर के विभिन्न समाजों पर नजर डालिए- दलितों और महिलाओं का ऐसा बुरा हाल आप कहीं नहीं पाएंगे। हिंदी क्षेत्र का समाज असल में इन्हीं दो वर्गों में बंटा हुआ समाज है— अग्रणी प्रभुवर्ग और शेष वंचित वर्ग। कमोबेश दोनों ही वर्ग विचाराशून्य हैं। पहला तबका इस कारण, क्योंकि उसने अपने से कमजोरों का हिस्सा हड़पने को अपनी संस्कृति का स्थाई हिस्सा बना लिया। दूसरा तबका इस कारण, कि उसने पहले तबके की संस्कृति की जड़ में बिना आवाज किए पड़े रहकर उसका पोषण करना स्वीकार कर लिया। दोनों ने ही अपने को मानवीय गरिमा की वास्तविक स्थिति से नीचे गिर जाने दिया।
कभी कहीं पढ़ा था कि पुस्तक मेले में सबसे अधिक किताबें पटना पुस्तक मेले में बिकती हैं, लेकिन इस बारे में मेरा अनुभव यह है कि यहां अधिकतर हल्की-फुल्की किताबें ही लोगों द्वारा अधिकतर खरीदी जाती हैं, या फिर प्रतियोगी परीक्षाओं वाली किताबें। गंभीर किताबें- हमारे विचारों को उत्तेजित करने वाली या हमें विचारशील बनाने वाली किताबों की बिक्री यहां कम होती है। किस तरह की पुस्तकों वाले स्टॉल पर कितनी भीड़ होती है, यह देखकर कोई भी इसका अंदाजा लगा सकता है। हम यह क्यों नहीं सोचते, कि जिस समाज में विचारशीलता जगाने वाली किताबें पढ़ी जाएंगी उस समाज में मानव-विकास इतना धीमा क्यों होगा कि यह रफ्तार देश में सबसे कम मानी जाए? क्यों निरक्षरों की सबसे बड़ी आबादी इसी क्षेत्र में कायम है और क्यों देश के सिमटते संसाधनों को और तेजी से कम करने के लिए बच्चे पैदा करने की दर देश के किसी भी हिस्से से ज्यादा यहीं पाई जाती है?
उत्तर भारत को विकसित किए बिना संपूर्ण भारत की तरक्की पर हमेशा ग्रहण लगा रहेगा और उत्तर भारत की तरक्की के लिए अब एक-एक व्यक्ति तक गुणात्मक शिक्षा पहुंचाने के लिए युद्ध-स्तर पर काम करने में और देर नहीं की जानी चाहिए। यह शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो बच्चों और बड़ों में स्वावलंबन की भावना जगाने के साथ-साथ उनमें मनुष्य होने का गर्व पैदा करे। आजादी के बाद हमने इस दिशा में इतनी ढिलाई बरती है कि अब यदि सामान्य से कई गुणा अधिक तेजी नहीं लाई गई, तो वह दिन दूर नहीं जब उत्तर भारत के हिन्दी भाषी लोग संपूर्ण भारत के स्तर पर अपने को अलग-थलग, कटा हुआ महसूस करेंगे, जो देश की तरक्की, एकता और अखंडता के लिए घातक साबित होगा।
-सूरज प्रकाश सिंह, मुम्बई. शिक्षा: भारतीय संस्कृति और पुरातत्त्व से स्नातकोत्तर. पेशा: स्वतंत्र लेखन, अनुवाद कार्य एवं फोटोग्राफी.
-सुमित सिंह
जो सोचते नहीं वे पढ़ते नहीं। उत्तर भारतीयों का बहुसंख्यक तबका विचारहीनता से ग्रस्त है। उनकी बात छोड़िए जिनकी सारी उम्र गरीबी झेलते और उससे लड़ते बीत जाती है, मेरा इशारा उनकी ओर है जो खाते-पीते लोग जनसंख्या के ऊपरी 5% वाली परत से आते हैं (जिनके बारे में अभी हाल में एक अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी का अध्ययन है, कि उनकी आय रोजाना 10 डॉलर यानि 15 हजार रू. मासिक से अधिक है)। इस तबके में (जाहिर है जिनके पास किताबें खरीदने और पढ़ने की सहूलियत है), कितने ऐसे घर आपको मिलेंगे जहां बैठकखाने में एक बुकशेल्फ हो ?
इसी उत्तर भारतीय क्षेत्र में भ्रष्टाचार, लंपटता, बेईमानी, झूठ और उद्दंडता की भरी-पूरी गंगा बहती है। उत्तर भारत के किसी गांव-शहर में रहने वाले आप एक विचारशील व्यक्ति हैं, लेकिन यदि आपका संपर्क भारत के अन्य हिस्सों से नहीं हुआ है तो शायद आप इस तथ्य को साफ-साफ नहीं समझ पाएंगे। जैसे ही आप यहां से बाहर निकलते हैं और नए लोगों के संपर्क में आते हैं आपको पहली ही बार में फर्क स्पष्ट महसूस होता है। भ्रष्टाचार और अनुशासनहीनता जिस तरह उत्तर भारतीय हिन्दी क्षेत्र की अपसंस्कृति का हिस्सा बन गई हैं, वह चरम की स्थिति है। ऐसा शायद और कहीं नहीं। आप ट्रेन में बैठकर उत्तर भारत से मध्य या दक्षिण भारत की यात्रा कर लें, ट्रेन के आपके सहयात्री या रास्ते के स्टेशनों पर चढ़ने-उतरने वाले लोगों, खासकर नौजवानों के बर्ताव से ही आप बहुत कुछ अनुभव कर लेंगे।
यह विचारहीनता की स्थिति उत्तर भारतीय हिन्दी क्षेत्र में इस कारण पैदा हुई, क्योंकि यहां समाज के अग्रणी वर्ग के लोगों ने समाज के शेष हिस्से के साथ उनकी मिहनत के फल को लूटकर खाने भर का अपना रिश्ता समझा। देश भर के विभिन्न समाजों पर नजर डालिए- दलितों और महिलाओं का ऐसा बुरा हाल आप कहीं नहीं पाएंगे। हिंदी क्षेत्र का समाज असल में इन्हीं दो वर्गों में बंटा हुआ समाज है— अग्रणी प्रभुवर्ग और शेष वंचित वर्ग। कमोबेश दोनों ही वर्ग विचाराशून्य हैं। पहला तबका इस कारण, क्योंकि उसने अपने से कमजोरों का हिस्सा हड़पने को अपनी संस्कृति का स्थाई हिस्सा बना लिया। दूसरा तबका इस कारण, कि उसने पहले तबके की संस्कृति की जड़ में बिना आवाज किए पड़े रहकर उसका पोषण करना स्वीकार कर लिया। दोनों ने ही अपने को मानवीय गरिमा की वास्तविक स्थिति से नीचे गिर जाने दिया।
कभी कहीं पढ़ा था कि पुस्तक मेले में सबसे अधिक किताबें पटना पुस्तक मेले में बिकती हैं, लेकिन इस बारे में मेरा अनुभव यह है कि यहां अधिकतर हल्की-फुल्की किताबें ही लोगों द्वारा अधिकतर खरीदी जाती हैं, या फिर प्रतियोगी परीक्षाओं वाली किताबें। गंभीर किताबें- हमारे विचारों को उत्तेजित करने वाली या हमें विचारशील बनाने वाली किताबों की बिक्री यहां कम होती है। किस तरह की पुस्तकों वाले स्टॉल पर कितनी भीड़ होती है, यह देखकर कोई भी इसका अंदाजा लगा सकता है। हम यह क्यों नहीं सोचते, कि जिस समाज में विचारशीलता जगाने वाली किताबें पढ़ी जाएंगी उस समाज में मानव-विकास इतना धीमा क्यों होगा कि यह रफ्तार देश में सबसे कम मानी जाए? क्यों निरक्षरों की सबसे बड़ी आबादी इसी क्षेत्र में कायम है और क्यों देश के सिमटते संसाधनों को और तेजी से कम करने के लिए बच्चे पैदा करने की दर देश के किसी भी हिस्से से ज्यादा यहीं पाई जाती है?
उत्तर भारत को विकसित किए बिना संपूर्ण भारत की तरक्की पर हमेशा ग्रहण लगा रहेगा और उत्तर भारत की तरक्की के लिए अब एक-एक व्यक्ति तक गुणात्मक शिक्षा पहुंचाने के लिए युद्ध-स्तर पर काम करने में और देर नहीं की जानी चाहिए। यह शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो बच्चों और बड़ों में स्वावलंबन की भावना जगाने के साथ-साथ उनमें मनुष्य होने का गर्व पैदा करे। आजादी के बाद हमने इस दिशा में इतनी ढिलाई बरती है कि अब यदि सामान्य से कई गुणा अधिक तेजी नहीं लाई गई, तो वह दिन दूर नहीं जब उत्तर भारत के हिन्दी भाषी लोग संपूर्ण भारत के स्तर पर अपने को अलग-थलग, कटा हुआ महसूस करेंगे, जो देश की तरक्की, एकता और अखंडता के लिए घातक साबित होगा।
-सूरज प्रकाश सिंह, मुम्बई. शिक्षा: भारतीय संस्कृति और पुरातत्त्व से स्नातकोत्तर. पेशा: स्वतंत्र लेखन, अनुवाद कार्य एवं फोटोग्राफी.
Sunday, March 7, 2010
इक प्यारी-सी खामोशी
एक ख़ामोशी जो हमारे बीच कई-कई दिनों तक तन जाती है
एक अनकही बात जिसे तुम कहते-कहते रुक जाती हो
एक टीसभरा लम्हा जो तुम्हें रोज-रोज निचोड़ जाता है
दिल पर पड़ा एक खरोंच जब ताजमहल बुन जाता है
...तुम्हारे लौट आने की उम्मीद के सहारे मैं एक सैलाब से बचकर निकल आता हूं
मगर कब तक बचता रहूंगा?
एक बेचैनी सी बनी रहती है कि इस रात के बाद शायद उजाला न दिखे
पल-पल सूखते वक्त के साये में इक दिन शायद सब कुछ चुक जाए
एक किस्सा है...शायद अधूरा रह जाए...।
-सुमित सिंह,पटना
Thursday, December 31, 2009
तुमसे प्यार करना अच्छा लगता है
तुमसे प्यार करना अच्छा लगता है
अच्छा लगता है तुम्हारा मुझसे नफ़रत करना
पास आना और फिर एक झटके में दूर चले जाना
तुम्हारी खामोशियों में छिपी बेचैनी को सुनना
तुम्हें सोचना
सताना
अच्छा लगता है
और तुम पूछ्ती हो क्यों?
बड़ा अच्छा लगता है
हिचकियां बांध कर रोते हुए किसी छोटे बच्चे को गोद में उठा लेना
और उसके आंसू पोंछ देना
किसी खाली शाम अपनी खिड़की के सामने की पहाड़ी पर
नीले अंधेरे और स्लेटी कोहरे को एक साथ गिरते देखना अच्छा लगता है
कभी-कभी अपने आप से बहुत दूर निकल आना
और एक जुनूनी इंसान को शहर के सड़कों पर
लंबी डगें भरते देखना भी अच्छा लगता है
बड़े होने पर मेरे पिता ने मुझे कभी बेटा कह कर नहीं पुकारा
फिल्मों में दिखने वाले पिता की तरह कभी दुलार नहीं किया
घर से विदा लेते वक्त
चुपचाप उनका दरवाजे तक मुझे छोड़ने आना
और बड़ी देर तक सिर झुकाए यूं ही खड़ा रहना मुझे बहुत अच्छा लगता है
छोटी-छोटी सुंदर अंगुलियों से रोटियां बनाती मां को याद करना अच्छा लगता है
कभी-कभी शहर की बत्ती गुल हो जाने पर
जुगनुओं की टिमटिमाहट की कल्पना करना
और माचिस की डिब्बियों में भर कर
उन्हें अपने कमरे में छोड़ देने की बात सोचना अच्छा लगता है
घने अंधेरों में फूलों के खिलने का ख़्वाब सजाना
और उसमें तुम्हारा मुस्कराता चेहरा देखना अच्छा लगता है
और तुम पूछ्ती हो क्यों?
तुम्हें सोचना...तुम्हारी खामोशियों को पीना
तुमसे प्यार करना
तुम्हें बाहों में भर कर रो पड़ने को दिल करना
इसलिए अच्छा लगता है...।
सुमित सिंह, मुम्बई
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Thursday, December 24, 2009
अक्सर खेलती है वह आंख-मिचौली
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